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________________ _मनोज कुमार तिवारी और पुरुषार्थ के सिद्धान्तों के संदर्भ में एकान्तिक दृष्टिकोण नहीं अपनाता है, फिर भी यदि पुरुषार्थ और नियति के प्राधान्य की दृष्टि से गुणस्थान सिद्धान्त पर विचार किया जाय तो प्रथम से सातवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में नियति की प्रधानता प्रतीत होती है और आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में पुरुषार्थ का प्राधान्य प्रतीत होता है। आठवें गुणस्थान से अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा आत्मा कर्मों पर शासन करती है। प्राणि-विकास की चौदह श्रेणियों में प्रथम सात श्रेणियों तक अनात्म का आत्म पर अधिशासन होता है और अंतिम सात श्रेणियों में आत्म का अनात्म पर अधिशासन होता है। ९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान - दृष्ट, श्रुत अथवा भुक्त विषयों की आकांक्षा का अभाव होने के कारण नवें गुणस्थान में अध्यवसायों की विषयाभिमुखता नहीं होती अर्थात् भाव पुनः विषय की ओर नहीं लौटते। आध्यात्मिक विकास के क्रम में गतिशील साधक जब कषायों में केवल बीजरूप सूक्ष्म लोभ छोडकर शेष सभी कषायों का क्षय या उपशमन कर देता है, उसके काम आदि वासनात्मक भाव भी समूल नष्ट हो जाते हैं, तब आध्यात्मिक विकास की यह अवस्था प्राप्त होती है। १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान - मोहनीयकर्म की २८ कर्म-प्रकृतियों में से २७ कर्म प्रकृतियों के क्षय या उपशम हो जाने पर जब मात्र संज्वलन लोभ शेष रह जाता है तब साधक इस गुणस्थान में पहुंचता है। आध्यात्मिक पतन के कारणों में मात्र सूक्ष्म लोभ के शेष रहने के कारण ही इस गुणस्थान का नाम सूक्ष्मसम्पराय है। ११. उपशान्तमोह गुणस्थान - आध्यात्मिक विकास की इस अवस्था में साधक उपशम विधि द्वारा कषायों को दबाकर ही प्रवेश करता है। जो साधक इस विधि द्वारा आगे बढ़ते हैं, उसके पतन की सम्भावना निश्चित रहती है। गोम्मटसार में कहा गया है कि जिस प्रकार शरद ऋतु में सरोवर का पानी मिट्टी के नीचे बैठ जाने से स्वच्छ दिखाई पड़ता है, लेकिन उसकी निर्मलता स्थायी नहीं होती, मिट्टी के कारण समय आने पर पुनः मलिन हो जाता है, उसी प्रकार जो आत्माएँ मिट्टी के समान कर्मजल के दब जाने से नैतिक प्रगति एवं आत्मशुद्धि की इस अवस्था को प्राप्त करती हैं वे एक समयावधि के पश्चात् पुनः पतित हो जाती है। यही कारण है कि उपशम विधि के द्वारा आध्यात्मिक विकास करने वाला साधक साधना के मार्ग में उच्च स्तर पर पहुँचकर भी पतित जो जाता है। १२. क्षीणमोह गुणस्थान - इस अवस्था में साधक क्षायिक विधि के द्वारा
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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