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मनोज कुमार तिवारी
कोई भी आत्मा प्रथम गुणस्थान की ओर जाती है तो इस द्वितीय गुणस्थान की अवस्था से गुजरती है। इसका काल अति अल्प होता है। जिस प्रकार फल का वृक्ष से टूटकर पृथ्वी पर पहुँचने में जो समय लगता है, उसी प्रकार आत्मा की गिरावट में जो समय लगता है वहीं समयावधि सास्वादन गुणस्थान के नाम से जानी जाती है। ___३. मित्र गुणस्थान - यह गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है आत्मा जिसमें न केवल सम्यक् दृष्टि होती है और न केवल मिथ्यादृष्टि। इस अवस्था में साधक सत्य-असत्य, शुभाशुभ में भेद नहीं कर पाने कारण अनिर्णय एवं अनिश्चय की स्थिति में रहता है। इस गुणस्थान में आत्मा प्रथम गुणस्थान से विकसित होकर नहीं
आती हैं, बल्कि चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करने के लिए इस अवस्था से गुजरकर जाती है, परन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता कि आत्माएं तृतीय गुणस्थान में विकसित होकर आ नहीं सकतीं, बल्कि प्राप्त कर सकती हैं। जो आत्माएँ चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध करके पुनः पुनः पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करती हैं, वे ही आत्माएँ अपनी उत्क्रान्ति काल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में आती हैं, लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व का स्पर्श नहीं किया है, वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में आती हैं। इस प्रकार मिश्र गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में आती हैं। इस प्रकार मिश्र गुणस्थान जीवन के संघर्ष की अवस्था का द्योतक है। इस गुणस्थान की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि इस अवस्था में मृत्यु नहीं होती है। इस सन्दर्भ में आचार्य नेमीचन्द्र का कहना है कि मृत्यु उसी स्थिति में सम्भव होती है, जिसमें भावी आयुकर्म का बन्ध नहीं होता, अतः मृत्यु भी नहीं हो सकती।
४. अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान - इस अवस्था में साधक का यथार्थता का बोध हो जाता है। उसका दृष्टिकोण सम्यक् होता है, फिर भी उसका आचरण नैतिक नहीं होता। उसका ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक होने पर भी आचरणात्मक पक्ष असम्यक् होता है। वह अशुभ को मानता है, लेकिन अशुभ के आचरण से बच नहीं पाता। ऐसा इसलिए होता है कि इस अवस्था में वासनाओं को आंशिक रूप से क्षय किया जाता है और आंशिक रूप से दबाया जाता है। दबी हुई वासना पुनः प्रकट होकर आत्मा को अयथार्थता की ओर अग्रसर कर देती है। महाभारत में ऐसा चरित्र हमें भीष्म पितामह का मिलता है जो कौरवों के पक्ष को अन्याययुक्त, अनुचित और पाण्डवों के पक्ष को न्यायपूर्ण और उचित मानते हुए भी कौरवों के पक्ष में ही रहने