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संदीप कुमार
से ही होती है- स्वतः प्रामाण्य उत्पन्न नहीं होता।
प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय में भी यही तथ्य है- अंधकार, चक्षुदोष, दूर का अंतर, भ्रमण आदि से इन्द्रियों में दोष उत्पन्न हो जाते हैं, उनके कारण वह प्रत्यक्ष अप्रमाण होता है। इन्द्रियाँ निर्मल होना, समीपता, चित्त सुखी होना आदि गुणों से युक्त प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। तथा इन दोनों गुणों में ज्ञान साधारण है। इन्द्रियों का निर्मल होना, समीपता, चित्त सुखी होना आदि गुणों से युक्त प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। तथा इन दोनों गुणों में ज्ञान साधारण है। इन्द्रियों का निर्मल होना यह इन्द्रियों का स्वरूप ही है। अत: ज्ञान ओर प्रामाण्य का एक ही सामग्री से उत्पन्न होते हैं यह कथन ठीक नहीं। इन्द्रियों की निर्मलता स्वाभाविक होने पर भी गुण है- उसी प्रकार जैसे दुराचार का अभाव ही सदाचाररूपी गुण है। इस गुण से ही प्रामाण्य उत्पन्न होता है- सिर्फ ज्ञान से उत्पन्न नहीं होता। अतः प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वत: नहीं परत: मानना ही उचित है।
अप्रमाण ज्ञान पाप का फल है तथा प्रमाणभूत ज्ञान पुण्य का फल है- यह भी प्रामाण्य के स्वतः उत्पन्न होने में बाधक है। ज्ञान और उसका प्रामाण्य ये जल और अग्नि के समान भिन्न कार्य है अत: उनका कारण भी भिन्न होना चाहिए। ज्ञान और प्रामाण्य के भिन्न कहने का कारण यह है कि कहीं कहीं ज्ञान तो विद्यमान् होता है, किंतु प्रामाण्य नहीं होता। जिस प्रकार अप्रामाण्य ज्ञान की एक विशेषता है उसी प्रकार प्रमाण्य भी ज्ञान की एक विशेषता है। अतः अप्रामाण्य के समान प्रामाण्य की उत्पत्ति का कारण भी ज्ञान की उत्पत्ति के कारण से भिन्न होता है। प्रामाण्य और ज्ञान एक ही है यह कहना तो संभव नहीं है क्योंकि प्रामाण्य न होने पर भी ज्ञान विद्यमान होता है। अतः ज्ञान और प्रामाण्य की उत्पत्ति भिन्न कारणों से होती है। इसलिए प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वतः न मानकर परत: माननी चाहिए। अप्रामाण्य की उत्पत्ति भी परत: मानना उचित है। आचार्य भावसेन प्रामाण्यवाद की समीक्षा का परीक्षण
मीमांसकों ने वेदों की अपौरुषेयता सिद्ध करने तथा पौरुषेयता के खंडन- शब्द, अर्थ, शब्दार्थ संबंध वाक्य तथा वाक्यार्थ के माध्यम से किया है।
सर्वप्रथम आक्षेप है कि सभी शब्दों की उत्पति पुरुष से हुई है, अत: शब्द-समूह रूप वेद भी पौरुषेय है। मीमांसकों के अनुसार यह उचित नहीं है। शब्द नित्य हैं।
नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वात्"