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________________ आचार्य भावसेन कृत वेद प्रामाण्यवाद की समीक्षा ६३ ___ अत: यज्ञ में अंतर्भूत हिंसा भी पाप का कारण होती है। उसे ही वेदों में स्वर्ग का साधन माना गया है इसलिए वेद अप्रमाण है। वेद ही प्रमाण नहीं है तो उन पर आधारित वेदांग, स्मृति, पुराण आदि प्रमाण कैसे हो सकते हैं? इसलिए चार वेद, छः वेदांग, पुराण, न्याय, मीमांसा एवं धर्मशास्त्र ये चौदह स्थान जिन्हे याज्ञवल्क्य स्मृति में प्रमाण माना है, प्रमाण प्रतीत नहीं होते। पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राडमिश्रिताः। वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दशा। ९. वेदों के स्वतः प्रामाण्य का निषेध मीमांसकों का कथन है कि मिथ्या ज्ञान से या दूषित अभिप्राय से किसी वक्ता द्वारा कहा हुआ वचन अप्रमाण होता है किन्तु वेद ऐसे किसी दूषित वक्ता द्वारा नहीं कहे गये है अत: वेद स्वयं प्रमाण हैं। कहा गया है शब्दे दोशाद्रवस्तावद् वक्त्रधीन इति स्थितः। तदभाव: कवचित् तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः।। तगुणैरपानां शब्दे संक्रान्त्यसंभवात्। यद् वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः।।" “शब्द में दोष की उत्पत्ति वक्ता के कारण होती है तथा वक्ता गुणवान हो तो शब्द निर्दोष होते हैं। गुणों के कारण दोष दूर हो जाने पर शब्द में दोष नहीं आ सकते। अथवा वक्ता ही न हो तो कोई दोष अपने आप उत्पन्न नहीं होता।" इसके उत्तर में आचार्य ने पूर्व में ही स्पष्ट किया है कि वेद अपौरूषेय नहीं हो सकते। अत: उन्हें निर्दोष कैसे कहा जा सकता है? द्वितीय, किसी वचन की प्रमाणता स्वंयसिद्ध नहीं होती। सरल आशय तथा यथार्थ ज्ञान से युक्त पुरूष के ही वचन प्रमाण होते हैं। गुणों से दोष दूर होते हैं किंतु वचन स्वतः प्रमाण होते हैं यह कथन उचित नहीं हैं। प्रकाश अंधकार को दूर करता है, साथ ही रूप के ज्ञान में सहायक होता है। उसी प्रकार गुण दोषों को दूर करते हैं, साथ ही प्रामाण्य भी उत्पन्न करते हैं। अतः वक्ता के दोष से वचन अप्रमाण होता है, वक्ता के गुण से वचन प्रमाण होता है तथा दोनों अवस्थाओं में ज्ञान उत्पन्न करता है यह मानना चाहिए। इसी प्रकार अनुमान में पक्षधर्मता आदि गुण हों तो वह प्रमाण होता है, असिद्ध आदि दोष हो तो अप्रामाण होता है तथा दोनों अवस्थाओं में ज्ञान उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह है कि वचन या अनुमान में प्रामाण्य की उत्पत्ति यथार्थ वक्ता अथवा पक्षधर्मता आदि गुणों
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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