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________________ आचार्य भावसेन कृत वेद प्रामाण्यवाद की समीक्षा पुरुषकृत ही सिद्ध होते हैं। ६. शब्द के नित्यत्व का निषेध मीमांसकों का कथन है कि शब्द नित्य है अत: शब्दसमुहरूप वेद भी नित्य है। आचार्य भावसेन के अनुसार शब्द ही नित्य नहीं अत: वेद भी नित्य नहीं है। 'शब्द सुना जाता है अत: यह नित्य है' यह अनुमान उचित नहीं क्योंकि उदात्त, अनुनासिक आदि ध्वनि भी सुने जाते हैं किंतु वे नित्य नहीं हैं। मीमांसकों के अनुसार 'यह वही आकाश है' इसके समान 'यह वही शब्द हैं' ऐसा ज्ञान होता है, अतः शब्द नित्य है। यह अनुमान भी ठीक नहीं। शरीर की विशिष्ट क्रियाएँ- नृत्य की मुद्रां आदि- दुहराई जाती हैं तब उनमें भी प्रत्यभिज्ञान होता है- 'यह वही मुद्राएँ है' ऐसा ज्ञान होता है किंतु ये मुद्राएँ नित्य नहीं होती। मुद्राएँ अनित्य हैं अत: उनमें प्रत्यभिज्ञान भ्रमजनित है किंतु शब्द के विषय में प्रत्यभिज्ञान भ्रमरहित है क्योंकि शब्द नित्य है। आचार्य भावसेन के अनुसार शब्द नित्य है या नहीं यही जब विवाद का विषय है तब "शब्द नित्य है अत: उसका प्रत्यभिज्ञान भ्रमरहित है" यह कहना कैसे संभव है? इसमें अन्योन्याश्रय भ्रमरहित है यह कहना कैसे संभव है? इसमें अन्योन्याश्रय दोष होगा। अत: शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिए किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता है। ___ “शब्द आकाश के समान अमूर्त है, अतः नित्य है", यह अनुमान भी उचित नहीं। क्रियाएँ अमूर्त होती हैं किंतु नित्य नहीं होती। इस दोष को दूर करने के लिए इसी अनुमान का रूपान्तरण करते हैं- “शब्द अमूर्त द्रव्य है, अतः नित्य है।" किंतु यह सदोष है। नैयायिकों के अनुसार शब्द गुण है, द्रव्य नहीं; दूसरी ओर जैन मतानुसार शब्द द्रव्य तो है किंतु मूर्त है- अत: शब्द अमूर्त द्रव्य है, यह कथन विवादस्पद है। शब्द के मूर्त होने का प्रमाण यह है कि वह स्पर्शयुक्त है। कांसे के पात्र पर शब्द का आघात होने पर वैसे ही नाद उत्पन्न होता है जैसे किसी कोण (वीणा बजाने का दण्ड) के आघात से उत्पन्न होती है। निसानादि वाद्यों के प्रचण्ड नाद से तथा पैदल सेना के पदाघात के नाद से प्रासाद गिरते हुए देखे गए हैं। इन सभी उदाहरणों से शब्द का स्पर्शयुक्त तथा मूर्त होना स्पष्ट है। "शब्द आकाश का गुण है, अत: आकाश की व्यापकता के समान शब्द भी नित्य है।"आचार्य भावसेन के अनुसार यह कथन युक्तियुक्त नहीं क्योंकि शब्द आकाश का गुण नहीं है। आकाश के गुण बाह्य इन्द्रियों से ज्ञात होता है। अतः शब्द आकाश का गुण नहीं हो सकता।
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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