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________________ ५८ संदीप कुमार वाक्यों के विषय में भी 'ये कृत हैं' यह ज्ञान होता ही है। जिन वाक्यों की रचना शक्य हो वे ही पौरुषेय होते हैं। यह नियम वैसा ही है। वेदवाक्यों की रचना भी शक्य है अतः इस नियम के अनुसार उन्हें पौरुषेय कहना चाहिए जो वाक्य अतीन्द्रिय विषयों का वर्णन करते हैं उनकी रचना पुरुषों द्वारा शक्य नहीं, उचित नहीं है। पिटकत्रय अतीन्द्रिय विषयों का वर्णन करते हैं किन्तु उनकी रचना पुरुषों द्वारा ही हुई है। "वेदों में समार्थ्ययुक्त मंत्र है अतः वेद प्रमाण हैं, यह कथन उपयुक्त नहीं है। सामर्थ्ययुक्त मंत्र पिटकत्रय में भी हैं फिर मीमांसक उनको प्रमाण क्यों नहीं मानते ? त्रिपटक में वेदों से ही मंत्र लिये गए हैं, यह कहना भी संभव नहीं क्योंकि वेद संस्कृत में हैं और त्रिपटक प्राकृत भाषा में हैं। वेद पौरुषेय हैं यह सिद्ध करने का सशक्त प्रमाण यह है कि वेदों में राजर्षियों की चरित-कथाएँ पाई जाती हैं। वेदमंत्रों के मुख्य चार प्रकार हैं- विधि, मंत्र, अर्थवाद तथा पुरातन कथावर्णन। विधि वह है जिसमें अज्ञात वस्तु की जानकारी दी जाती है, जैसे - संध्या की उपासना करनी चाहिए, अग्निहोत्र का हवन करना चाहिए। मंत्र अनुष्ठान में उपयुक्त वाक्य हैं, जैसे- (अग्नये स्वाहा ) 'अग्नि को अर्पण हो', (अग्ने इदं न मम) 'यह अग्नि का है, मेरा नहीं।' अर्थवाद अनुष्ठान की स्तुति करने वाले वाक्य हैं, जैसे- पुण्य करने वाले लोग मृत्यु के बाद उस स्थान में जाते है जहाँ गर्मी नहीं होती, भूख नहीं होती, ग्लानि नहीं होती, सब पर जय प्राप्त होती है। पुरातन कथा का उदाहरण- देव-असुर संग्राम कथा, जिसमे देवों की विजय हुई। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वेदों में राजर्षियों की चरित-कथाएँ है। अतः वेद पौरुषेय सिद्ध होते हैं। वेद में विश्वामित्र, जनक, जनमेजय आदि जो नाम पाए जाते हैं वे विशिष्ट देश और काल में विद्यमान व्यक्तियों के हैं, गौ, अश्व आदि जाति- नामों से तथा दण्डधारी, छत्रधारी आदि उपाधिसूचक नामों से ये नाम भिन्न हैं। कादम्बरी, चित्रलेखा आदि नामों के समान इन नामों का प्रयोग भी पुरुषकृत संकेत पर अवलम्बित है। अतः वेदों में इनका पाया जाना वेद पुरुषकृत होने का स्पष्ट प्रमाण हैं। तथा 'इष तथा उर्ज में अंगिरस' आदि नाम भी संकेत सिद्ध हैं । भट्टि, चाणक्य आदि नामों के समान अंगिरस आदि नाम भी नियत व्यक्ति का वाचक है तथा जाति व उपाधि से भिन्न है। अतः पुरुषकृत संकेत द्वारा ही इसका प्रयोग संभव है। वेदों के मंत्र त्रिष्टुप् अनुष्टुप आदि छंदों में निबद्ध हैं तथा छंदों के समूह हैं अतः महाभारत आदि के समान वेद भी
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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