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आचार्य भावसेन कृत वेद प्रामाण्यवाद की समीक्षा
४. वेद सदोष हैं :
मीमांसकों का कथन है कि जिस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्त पुरूष का वचन निर्दोष कारणों से उत्पन्न होने पर प्रमाण होते हैं, उसी प्रकार वेदवाक्यों की प्रेरणा भी प्रमाण है क्योंकि वह निर्दोष कारणों से उत्पन्न होती है।
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आचार्य भावसेन के अनुसार यह उचित नहीं है। वेद सर्वज्ञप्रणीत नहीं हैं अतः वे दोषरहित नहीं हो सकते और इसीलिए प्रमाण भी नहीं हो सकते। वेद अपौरूषेय हैं अतः निर्दोष हैं यह कथन भी उचित नहीं क्योंकि वेद अपौरूषेय नहीं हो सकते।
वेदवाक्य प्रमाण हैं क्योंकि आयुर्वेद के समान वेदवाक्य भी अन्य प्रमाणों से वाधित नहीं होते। मीमांसकों का यह अनुमान भी उचित नहीं है। " आत्मा से आकाश उत्पन्न हुआ” आदि वेदवाक्यों को नैयायिक बाधित मानते हैं। “उसके चक्षु सर्वत्र हैं" आदि वेदवाक्यों को वेदान्ती बाधित मानते हैं। मीमांसक इन दोनों को गलत कहते हैं। कुछ वाक्य तो सब को अमान्य होने जैसे हैं, उदाहरण के लिए- तूंबी डूबती है, पत्थर तैरते हैं, अंधे ने मणि को बींधा, देवों की गायें उल्टी बहती हैं, आदि। इन सब बाधाओं के होते हुए वेदवाक्यों को अबाधित कैसे कहा जा सकता है? इस अनुमान का उदाहरण भी सदोष है क्योंकि आयुर्वेद पूर्णत: अबाधित नहीं है क्योंकि उससे सब व्याधियाँ दूर नहीं होती। अतः अबाधित होने से वेद प्रमाण है यह कथन निरर्थक है।
५. वेद पौरुषेय हैं :
वेद पौरुषेय हैं क्योंकि वे वाक्यों में निंबद्ध हैं तथा वाक्य पौरुषेय ही होते हैं। वेद' त्रिष्टुप्, अनुष्टुप आदि छंदों में हैं। अतः वे वाक्य नहीं है, कहना उचित नहीं क्योंकि छंदोबद्ध अथवा अबद्ध दोनों प्रकार के शब्द समूहों को वाक्य कहते हैं। अमरकोश में कहा भी है.
सुप्तिडतोचयो वाक्यं क्रिया वा कारकान्विता।५
‘विभक्ति तथा क्रिया के प्रत्ययों से युक्त शब्दों का समूह वाक्य कहलाता है, • अथवा कारक से युक्त क्रिया को वाक्य कहते हैं।' 'वेदों में वाक्य तो हैं किन्तु उनके कर्ता का स्मरण नहीं है अतः वे वाक्य पौरुषेय नहीं हैं। यह कथन भी संभव नहीं है। जिसके कर्ता का स्मरण नहीं वह अपौरुषेय है, यह कोई नियम नहीं है।
यदि यह कहें कि जिन वाक्यों के विषय में 'ये कृत हैं' ऐसा ज्ञान होता है वे ही वाक्य पौरुषषेय हैं तो इससे भी वेदवाक्य पौरुषेय ही सिद्ध होते हैं क्योंकि वेद
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