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संदीप कुमार
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ये हैं -
विश्वतश्चक्षुरूत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरूत विश्वतःपात्।
शं बाहभ्यां धमति संपतत्रै द्यावाभूमी जनयन् देव एकः।।२ 'यह एक देव है जो पृथ्वी और आकाश को उत्पन्न करता है, इसकी आँखें सर्वत्र हैं, इसके मुख, बाह और पैर सर्वत्र हैं तथा यह अपने बाहओं से कल्याण का निर्माण करता है।'
सेश्वरसांख्य दर्शन के अनुयायी भी ईश्वर व देवताओं को तथा सृष्टि और संहार को मानते हैं तथा आधार के रूप में ये वेदवाक्य प्रस्तुत करते हैं -
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। उरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। चन्द्रमा मनसो जात: चक्षु सूर्योऽजायत।।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत।।३ "उस (सर्वव्यापी पुरूष) का मुख ही ब्राह्मण थे, क्षत्रिय उसके बाहु थे, वैश्य उसकी जंघाएँ थे। तथा शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुए थे। उसके मन से चन्द्रमा, आँखों से सूर्य, मुख से इन्द्र तथा अग्नि एवं श्वास से वायु उत्पन्न हुआ था।"
निरीश्वर सांख्य दार्शनिक ईश्वरादि देवताओं को नहीं मानते, आत्मा को भोक्ता मानते हैं, किन्तु कर्ता नहीं मानते, आत्मा को ज्ञान से रहित, सर्वदा शुद्ध मानते हैं। इनके मत में जगत् की सृष्टि तथा संहार का क्रम इस प्रकार है- 'प्रकृति से महत्, उस से अहंकार, उस से सोलह तत्त्वों का समुदाय तथा उन सोलह में से पाँच तन्मात्राओं से पंचमहाभूत आविर्भूत होते हैं।'
प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गुणश्च षोडशकः।
तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्यः पंचभूतानि।।। इस प्रकार वैदिक दर्शनों में परस्पर विरोध इतना प्रबल है कि उन सब को युक्तिवादी या तर्कसंगत कहना संभव नहीं। इसलिए युक्तिवादी बहुमत वेद को प्रमाण मानता है यह कहना भी व्यर्थ होता है। वेदों के बहुसम्मत होने में आयुर्वेद का जो उदाहरण दिया है वह भी निरूपयोगी है क्योंकि आयुर्वेद कोई पूर्ण प्रमाण नहीं है, यदि वह पूर्ण प्रमाण होता तो उस से नियमपूर्वक सब व्याधियाँ दूर होती किंतु ऐसा नहीं है। अतः वेदों की प्रमाणता में आयुर्वेद का उदाहरण व्यर्थ है।