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________________ आचार्य भावसेन कृत वेद प्रामाण्यवाद की समीक्षा चार वेद उत्पन्न हुए।" इस पर मीमांसकों का मत है कि वेद के विधिवाद तथा अर्थवाद नामक दो भाग किये जा सकते हैं। इनमें मुख्य भाग विधिवाद है। विधायक वाक्य हमें किसी कर्म को करने का या न करने का आदेश देते हैं। इस प्रकार विधिवाद कर्मपरक आदेश देता हैं (अभिहितान्वयवाद)। अर्थवाद या सिद्धार्थवाक्य वर्णनात्मक हैं जो हमें सत्य पदार्थों का ज्ञान कराते हैं। प्रभाकर के अनुसार अर्थवाद भी कर्म का सहायक बनकर ही प्रामाणिक हो सकता है (अन्विताभिधानवाद)। जैन आचार्य के अनुसार मीमांसकों का मत है कि विधायक वाक्य तो प्रमाण है किन्तु सिद्धार्थ वाक्य प्रमाण नहीं है, उचित नहीं हैं क्योंकि आगम में ऐसा भेद करना अनुचित है जैसे प्रत्यक्ष प्रमाण कार्य और सिद्ध दोनों अर्थों में प्रमाण होता है, वैसे ही सभी प्रमाण होते हैं। अत: आगम को भी कार्य और सिद्ध (विधायक और सिद्धार्थ) दोनों विषयों में प्रमाण मानना चाहिए। __इस पर मीमांसकों का आक्षेप है कि आगम प्रमाण शब्द पर आश्रित है और शब्द अपने कार्यपरक अर्थ या विधायक वाक्य के रूप में नियत है। अतः आगम विधायक वाक्य या कार्यविषय में ही प्रमाण है। प्रत्यक्ष प्रमाण शब्दों पर आश्रित नहीं है अतः उसमें ऐसी मर्यादा नहीं है। आचार्य भावसेन के अनुसार उपरोक्त तर्क उचित नहीं है क्योंकि प्रथम तो, शब्द कार्यपरक अर्थ (विधायक वाक्य) में ही नियत होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं हैसिद्धार्थ वाक्यों के लिये भी शब्दों का प्रयोग होता है। द्वितीय, आगम को विधायक वाक्य में ही प्रमाण मानकर भी उपर्युक्त आगमवाक्य का स्पष्टीकरण हो सकता हैयह कहा जा सकता है कि 'प्रजापति वेद के कर्ता हैं अत: उनकी आराधना करनी चाहिए।' मीमांसकों का मत है कि वेदों में जो क्रिया पद है उनसे वही अदृष्ट अर्थ व्यक्त होता है जिसका ज्ञान अन्य प्रमाणों से नहीं होता। जैनाचार्य के अनुसार जैसे सब शब्द दृष्ट तथा अदृष्ट दोनों विषयों में प्रयुक्त होते हैं वैसे ही वेद के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। अत: ऐसा नियम बनाना कि वे अदृष्ट विषय को ही व्यक्त करते है, उचित नहीं है। इस विषय में पूर्ववर्ती आचार्य ने कहा है- “यदि अदृष्ट को आगम से भिन्न प्रमाण का विषय मानते हैं तो वह अपूर्व विषय नहीं रहेगा। किन्तु अन्य प्रमाणों से अदृष्ट का ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार शब्दों द्वारा इसका वर्णन संभव नहीं होगा।" अत: वेद प्रतिपादित विषयों का ज्ञान अन्य प्रमाणों से भी होता है
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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