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आचार्य भावसेन कृत वेद प्रामाण्यवाद की समीक्षा के लिए किसी स्वतंत्र प्रमाण की आवश्यकता है। यह कहने से परस्पराश्रित दोष है कि वेद अपौरुषेय है इसलिए प्रमाण है। दूसरा कथन वेद प्रमाण है अतः अपौरुषेय है। आचार्य भावसेन के अनुसार जैन आगम सर्वज्ञप्रणीत होने से प्रमाणभूत होते हैं। अत: प्रमाण होने के लिए अपौरुषेय होना जरुरी नहीं।
(ब) आचार्य भावसेन के अनुसार वेद के कर्ता का स्मरण नहीं है, कथन उचित नहीं है। बौद्ध दार्शनिकों का मत है कि वेद के कर्ता अष्टक, याज्ञवल्क्य आदि ऋषि है। इस पर आक्षेप करते हुए मीमांसकों का तर्क है कि प्रतिपक्षियों में वेद के कर्ता के विषय में मतैक्य नहीं है अत: उनके कथन विश्वसनीय नहीं है। जैनाचार्य भावसेन के अनुसार प्रतिपक्षियों में वेद के कर्ता के नाम के बारे में मतैक्य नहीं होने के बावजूद वेद का कोई कर्ता अवश्य था इस विषय में एकमत है। अतः वेद के कर्ता का स्मरण ही नहीं है यह कहना उचित नहीं है।
(स) मीमांसको का एक आक्षेप यह है कि जिसे एक बार किसी वस्तु का अनुभव हुआ है उसे ही उसका स्मरण हो सकता है। प्रतिवादी को वेद-कर्ता का अनुभव ही नहीं हुआ है अतः स्मरण भी नहीं हो सकता।
आचार्य भावसेन का उत्तर यह है कि प्रत्यक्ष अनुभव न होने पर भी वृद्धों के उपदेश से वेद के कर्ता का स्मरण हो सकता है तथा शब्द/वाक्य पुरुषकृत होते हैं इस अनुमान से भी वेद के कर्ता का अनुमान हो सकता है। द्वितीय, सभी देश और सभी कालों में सभी व्यक्तियों को कैसे हुआ? यदि ऐसा संभव है तो मीमांसक सर्वज्ञ ही सिद्ध होंगे। (द) मीमांसकों का तर्क है कि
वेदस्याध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम्।
वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययन यथा। अर्थात् जैसे इस समय वेद का अध्ययन गुरु परम्परा से किया जाता है वैसे ही सर्वदा होता है- वेदाध्ययन अविच्छिन्न गुरू परम्परा से चलता है। अत: वह अनादि है- किसी व्यक्ति द्वारा शुरू किया हुआ नहीं है।
आचार्य भावसेन के अनुसार यह कथन सदोष है। आपस्तम्ब सूत्र, बौधायन कल्पसूत्र, बौधायन, कण्व शाखा इन नामों से ही स्पष्ट है कि आपस्तम्ब, बौधायन, कण्व आदि आचायों ने वेदाध्ययन की उस शाखा का प्रारम्भ किया है। अतः वेदाध्ययन की परम्परा अनादि नहीं है। द्वितीय, इस समय वेद का ही अध्ययन गुरू