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संदीप कुमार
न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदांत। इन्हें साधारणतः षड्दर्शन के नाम से जाना जाता
इस प्रकार वेद हमारी संस्कृति के मूल स्तंभ, अपौरुषेय, नित्य, अलौकिक और अनंत ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं। वैदिक वाक्य मंत्र हैं, इनकी प्रामाणिकता स्वत:सिद्ध है। नास्तिकवादी विचारधारा के अनुसार वेद साधारण ग्रंथ के रूप में माने जाते हैं, स्वतः प्रमाण नहीं माने जाते और यह आवश्यक नहीं समझा जाता कि सिद्धांतों की पुष्टि के लिए केवल वेदों को ही आधार माना जाये।
नास्तिक दर्शनों विशेषकर जैन दर्शन ने वेदों के प्रामाण्य एवं उनकी अपौरुषेयता का खंडन किया है। जैनाचार्य भावसेन त्रैविध ने अपने ग्रंथ 'विश्वतत्त्वप्रकाश' में वेदों की अपौरुषेयता का अनेक तर्कों द्वारा निरास किया है। वेदों की अपौरुषेयता के खंडन से पूर्व आस्तिक दर्शनों द्वारा अपौरुषेयता की स्वीकार्यता को जानना आवश्यक है। मीमांसा का मत वेदों की अपौरुषेयता के मंडन के लिए प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित है। मीमांसा के अनुसार वेद अनादि और नित्य हैं। वेद सब सत्य विद्याओं का भंडार
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आचार्य भावसेन का मत १. वेदों के आपौरुषेयत्व का निरास - ___ चार्वाकों के अनुसार कादम्बरी आदि के वाक्यों के समान सभी वाक्य पुरुषकृत होते हैं अत: वेद वाक्य भी पुरुषकृत हैं। यह मत जैन दार्शनिकों को भी स्वीकार्य है।
(अ) आचार्य भावसेन के अनुसार मीमांसकों ने वेदों को अपौरुषेय माना है क्योंकि वेदाध्ययन की परम्परा अविच्छिन्न है किंतु उनके कर्ता कौन हैं इसका किसी को स्मरण नहीं है। यदि कोई कर्ता होता तो किसी को उसका स्मरण अवश्य होता। __आचार्य भावसेन के अनुसार मीमांसा का यह तर्क दोषपूर्ण है। कर्ता का स्मरण नहीं है, अत: कर्ता ही नहीं है यह उचित नहीं है। उदाहरणार्थ- त्रिपिटक के कर्ता का स्मरण नहीं है अतः वे भी अपौरुषेय है। जबकि बौद्ध विद्वान इन्हें पौरुषेय/पुरुषकृत मानते हैं। जब पिटकत्रय को अप्रमाण माना जाता है तो वेद भी अप्रमाण होगें- दोनों में विशेष अंतर नहीं है।
उपरोक्त तर्क-'वेद का कर्ता ही नहीं है अत: उसका स्मरण नहीं होता', में अन्योन्याश्रय दोष है। क्योंकि पहले कहा गया है कि स्मरण नहीं होता इसलिये कर्ता नहीं है। अब कहा गया कि कर्ता नहीं है इसलिए स्मरण नहीं होता। इसे सिद्ध करने