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________________ जैन दर्शन में स्त्री - मोक्ष संबंधी विचार- एक दार्शनिक समीक्षा ४५ से प्रश्न उठाया जा सकता है। तार्किक दृष्टि से यह पूरी तरह से स्वीकारणीय है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की भांति नग्न संन्यासी का जीवन जी सकती हैं। आचार्य मेघविजय इसी बात को अपने तर्क में उठाते हैं। एक पुरुष प्रधान समाज में लैंगिकता का विचार भी पुरुष प्रधान है और पुरुषों का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण अक्सर भोगवस्तु से अधिक कुछ नहीं होता। इसलिए नग्न स्त्री को भोगवस्तु माना जाता है। जबकि नग्न पुरुष को भोगवस्तु बिलकुल नहीं माना जाता। बल्कि दिगंबर जैन परंपरा में इसे ऐसे व्यक्ति की पहचान बताया गया है जिसने अपने इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। ऐसी स्थिति में स्त्री का एक नग्न साध्वी के रूप में विचार को न केवल अस्वीकार्य माना गया बल्कि अकल्पनीय माना गया। इस प्रकार जैन विमर्श में दोनों ही पक्ष आचार्य मेघविजय के स्त्रियों के प्रति एक आदर्श दृष्टिकोण को शामिल नहीं करते हैं । वस्त्रादि पहनना सांस्कृतिक बात है। संस्कृति कालानुरूप रहती है। संस्कृति के सभी मूल्य नैतिक नहीं होते हैं। यह बिंदु ब्रह्मचर्य की अवधारणा से भी संबंधित हैं। स्त्रियों के वस्त्रधारण की अनिवार्यता का संबंध पुरुषों के ब्रह्मचर्य से भी था । ऐसा माना गया कि वस्त्ररहित स्त्री को देखने पर पुरुषों का ब्रह्मचर्य संबंधी व्रत टूट सकता है। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि पुरुष संन्यासी द्वारा अपने इंद्रिय संयम को बनाये रखने के लिए स्त्रियों के वस्त्रधारण की अनिवार्यता पर जोर दिया गया। वास्तव में यह पुरुषों की समस्या थी कि वे ऐसे दृश्यों से आत्मनियंत्रण खो सकते हैं। किंतु अपनी कमजोरियों को स्वीकारने के बजाय पुरुषों ने उनको स्त्रियों पर थोप दिया । नग्नता का परिणाम हमेशा सभी लोगों पर वासनाओं को जगानेवाला नहीं है। नग्नता ऐसी सीख है जिससे नग्न व्यक्ति अपनी वासनाओं को नियंत्रित करते हैं। यह पुरुष केन्द्रित और पुरुष की दृष्टि से सोचा विचार है। यह जरुरी नहीं है कि स्त्री की दृष्टि से यही निष्कर्ष प्राप्त हो । २. अहिंसा संबंधी तर्क : दिगम्बर स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा संबंधी आपत्तियाँ लगाते हैं। १. स्त्रियों को कपडे पहनना जरुरी है और कपडे पहनने से हिंसा होती है । २. स्त्री शरीर में कई प्रकार के सूक्ष्म जीव पैदा होते हैं। ३. मासिक बहाव भी एक प्रकार की हिंसा पैदा करता है। ये सभी आपत्तियाँ तीव्र आलोचना योग्य हैं। सर्वप्रथम जिस प्रकार अपरिग्रह की
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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