SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुनील राऊत मेघविजय स्त्री प्रशंसा में कहते हैं कि वे अनिवार्यतया अच्छे स्वभाव की होती हैं। उनके सद्गुणों के कारण ही स्त्रियाँ शुद्ध मन और कोमल शरीर लेकर जन्म लेती हैं। वह एक ऐसी आदर्श माँ का भी उल्लेख करते हैं जिसके सद्गुणों की प्रशंसा देवताओं ने भी तीर्थंकर के जन्मोत्सव पर की थी। उपसंहार : __इस प्रकार हम पाते हैं कि आध्यात्मिक जीवन मे प्रवेश हेतु स्त्रियों की योग्यता और उस काल में स्त्रियों की स्थिति का विवेचन जैन दर्शन का एक रूचिकर पहलू है जिसपर दिगंबर कुंदकुंदाचार्य से लेकर श्वेतांबर आचार्य मेघविजय तक अनेक जैन आचार्यों ने प्रकाश डाला है। विशेषकर दिगंबर जैन संप्रदाय में स्त्रियों और उनके शरीर के प्रति एक विकारयुक्त व दोषपूर्ण प्रवृत्ति दिखाई देती है। कुंदकुंदाचार्य के 'सुत्तपाहड्डु' में हम तीन प्रकार के मुख्य तर्क पाते हैं। यही तीन प्रकार के तर्क दिगंबर जैन परंपरा में स्त्री मुक्ति के विरोध में बार बार दोहराए गए हैं। अतः अब हम तर्कों की आलोचनात्मक दृष्टि से परीक्षण करते हैं। १. अपरिग्रह संबंधी तर्क : . ___ इस तर्क की आलोचना में यहाँ यह आवश्यक हो जाता है कि हम आंतरिक अपरिग्रह और बाह्य अपरिग्रह में भेद करें। एक तरह से भौतिक शरीर भी जीव के लिए एक परिग्रह है। ऐसे में वह वस्त्र पहनता है या नहीं यह अप्रासंगिक हो जाता है। क्योंकि एक जीव शरीर के रूप में वह बिना परिग्रह के नहीं रह सकता। किंतु मुख्य प्रश्न आंतरिक परिग्रह के विषय में है। जैन परंपरा में मनोभाव जीव के आंतरिक परिग्रह को निर्मित करते हैं। यदि जीव उनसे मुक्त है तो वह मुक्त कहा जा सकता है। उस दशा में जीव शरीर युक्त है या नहीं और जीव कपड़ों में है या नहीं यह सभी बातें अप्रासंगिक हो जाती हैं। जहाँ तक आंतरिक अपरिग्रह का प्रश्न है, दिगंबर ऐसा मानते प्रतीत होते हैं कि आंतरिक और बाह्य परिग्रह अभिन्न है इस प्रकार कि बाह्य परिग्रह से आंतरिक परिग्रह अनिवार्य रूप से आपादित होता है। किंतु यहाँ मैं मानता हूँ कि श्वेतांबर यह दर्शाने में सही हैं कि बाह्य परिग्रह से आंतरिक परिग्रह अनिवार्यतः नहीं निकलता। ___ इस पूरी चर्चा में जिसमें वस्त्रधारण को परिग्रह माना गया है, दोनों ही पक्षों की एक सामान्य पूर्वमान्यता है कि स्त्रियों के लिए वस्त्रधारण अनिवार्य है, जब कि पुरुषों के लिए नहीं। यह एक सामाजिक, सांस्कृतिक पूर्व मान्यता है। जिसपर तार्किक दृष्टि
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy