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जैन दर्शन में स्त्री-मोक्ष संबंधी विचार- एक दार्शनिक समीक्षा बताए हैं। १. जैन तीर्थंकरों ने हमें यह शिक्षा दी है कि मोक्ष का केवल एक ही मार्ग है वह है
संपूर्ण नग्नता और हाथों को भिक्षापात्र के रूप में उपयोग करना। अन्य सभी
मार्ग असत्य मार्ग हैं। २. ऐसा भिक्षु जो वस्तुओं को (यहाँ तक कि कपडा, भिक्षापात्र, आदि भी)
स्वीकारता है, उसे जैन आगमों में निंदित किया गया है। क्योंकि वही मुक्त है
जो गृहस्थ जीवन की सभी संगृहीत वस्तुओं से मुक्त है। ३. जिसने पाँच महाव्रत (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य) लिए हैं और
जो तीन प्रकार की गुप्तियों से सुरक्षित है वही वास्तविक भिक्षु है। केवल वही
मोक्ष के मार्ग पर है जो सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त (निबंध) है। ४. भिक्षु की दुसरी पहचान है कि वह एक उच्च कोटि का श्रोता (श्रावक) है। जो
अपने भाषण और पदचाल में पूर्णतः नियंत्रित है। जो अपने भिक्षापात्र में भिक्षा
देखकर भी चुपचाप आश्चर्य में रहता है। ५. तीसरी पहचान स्त्रियों के बारे में है, उन्हें आर्यिका' कहा जाता है। जो केवल
एक समय का भोजन करती हैं और केवल एक वस्त्र ही पहनती हैं। ६. जैन शिक्षाओं के अनुसार एक व्यक्ति जो वस्त्र पहनता है वह मोक्ष प्राप्त नहीं
कर सकता। चाहे वह तीर्थंकर ही क्यों न हो। मोक्ष मार्ग में नग्नता आवश्यक है। अन्य सभी मार्ग असत्य है। जैन आगमों में कहा गया है कि स्त्रियों के वक्षस्थल में, उनकी नाभि और बगल में बहुत सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं। तब कैसे उनके लिए भिक्षु-अनुशासन
(परिव्रज्या) दिया जा सकता है। क्योंकि वे अहिंसा व्रत का उल्लंघन करती हैं। ८. स्त्रियों में मन की शुद्धता नहीं होती। वे स्वभाव से ही चंचल प्रवृत्ति की होती
हैं। उनमें मासिक बहाव होता है। अतः स्त्रियाँ चिंतामुक्त होकर साधना या
ध्यान नहीं कर सकती। कुंदकुंदाचार्य के इन तर्कों के विरुद्ध उत्तरपक्ष के रूप में विपरीत विचार वाले अपना प्रतिपक्ष रखते हैं। सबसे पहली प्रतिक्रिया छठी शताब्दी में श्वेताम्बर आचार्य जिनभद्र की ओर से प्राप्त होती है। उनके ग्रंथ 'विशेषावश्यक भाष्य' में ऐसे नियमों का कडा समर्थन किया गया है जो जैन भिक्षुओं को वस्त्रों और भिक्षा पात्र के प्रयोग की अनुमति देते हैं। किंतु अजीब बात यह है कि जिनभद्र कुंदकुंदाचार्य के सर्वाधिक