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कर्म, बंधन, मोक्ष : जैन और अद्वैत दृष्टिकोण
साथ ही साथ दोनों यह मानते हैं कि आत्मा की स्वाभाविक दशा ही मोक्ष है। बंधन स्वाभाविक दशा न होकर आत्मा की वैभाविक दशा है। यद्यपि शंकर के अनुसार विभाव की यह अवस्था सत्य नहीं, मात्र प्रतीति है। जबकि इसके विपरीत जैन दार्शनिक आत्मा की इस विभाव दशा को प्रतीति न मानकर सत्य स्वीकार करते हैं। बंधन का कारण शंकर ने अविद्या या मिथ्यात्व को माना है जबकि जैन दर्शन मोह को बंधन का प्रमुख कारण मानता है।
___ संदर्भ एवं टिप्पणियाँ १. आरमानि एवाविद्यानिवृत्तिः। शांकर भाष्य, बृह. उप., १.४.१० २. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाबन्धहेतवः। तत्त्वार्थसूत्र, ८.१ ३. रागो य दोसो नि य कम्मणीयं कम्मं च मोहाप्पभवं वयन्ति। उत्तराध्ययन,
३२.७ ४. शंकरभाष्य, ६.३.४२ ५. लाड, अशोक कुमार, भारतीय दर्शन में मोक्ष चिन्तन : एक तुलनात्मक
अध्ययन, म.प्र. हिन्दी अकादमी, भोपाल, १९७३, पृ. १५६
मोक्षज्ञानकार्यमित्युच्यते। बृह.उप.शां.भा., ३.१.१३ ७. स्वात्मन्यवस्थान मोक्षः। तैति. उप.भा., १.११ ८. अविद्यापगमयात्रत्वात् ब्रह्मप्राप्तिफलस्य। बृह.उप.भा., १.४.१० ९. नहि क्रिया निर्वृनार्थो नित्यो दृष्टः नित्यश्च मोक्षोभ्युपगम्यते। वही. ४.४.६ १०. मोक्षप्रतिबन्धनिवृत्तिमात्रमेव आत्मज्ञानस्य फलम्। शां.भा.१.२.४ ।। ११. अप्पा ह खलु सययं रक्खियत्वो 'सविदिएहिं सुसमाइएहिं। अरक्खिओ जाइपहं
उवेइ सुरक्खिओ सव्वदुक्खाण मुच्चई। दशवैकालिक चूलिका, २.१६ १२. कायवाङ्मनःकर्म योगः। तत्त्वार्थसूत्र ६.१ १३. कीरइ जिएणं हेउहिं, जेण तो भण्णए कम्म। कर्मग्रंथ, प्रथमभाग १४. पं. सुखलाल संघवी, दर्शन और चिन्तन, पृ.२२५ १५. सिंह, बी.एन., भारतीय दर्शन, स्टूडेण्टस् एण्ड फ्रेण्डस्, बनारस, १९८४,
पृ.५०२-३ १६. धर्मरज्वा ब्रजेदूर्ध्वं पापरज्वा ब्रजेदधः। द्वयं ज्ञानसिना दिष्टवा विदेहः शांतिमृच्छति।।
शां.भा., श्वेता.उप.१.१ १७. चारित्रं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिदिदट्ठो।