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________________ रञ्जन कुमार शंकर पूर्ण मोक्ष में शरीर और इन्द्रियों का अभाव मानते हैं। जीवन्मुक्त देहपात के बाद ब्रह्मैक्यरूप जिस मोक्ष की अनुभूति करता है वह मोक्ष पारमार्थिक, कूटस्थ नित्य, आकाशतुल्य सर्वव्यापी है। यह सभी विकारों से रहित, नित्य तृप्त, निरवयव और स्वयं प्रकाश स्वभाव वाला है। इसमें धर्माधर्मादि नहीं रहते और न ही इसका कालत्रय से कोई सम्बन्ध हैं। यही अशरीरी नामक मोक्ष है अर्थात् विदेहमुक्ति है।" सदानंद इसी को आनन्दैकरस से पूर्ण समस्त भेदों से रहित अखंड ब्रह्म में अवस्थिति वाला परम एवं पूर्णकैवल्य मानते हैं।" जैनपरम्परा में यह सिद्ध जीव है जो समस्त घाती-अघाती कर्मों से मुक्त होकर सिद्धशिला पर प्रतिष्ठापित होता है। दोनों ही मत मुक्त जीव के पुनर्जन्म का निषेध करते हैं क्योंकि वह फलों की आशा के बिना कर्म करता है। बंधन मोक्ष : जैन और शंकरमत तुलनात्मक विवेचन करने पर हमारे समक्ष बंधन और मोक्ष के संबंध में जैन और शंकर के विचारों में मूलभूत अंतर मिलता है जो दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। आचार्य शंकर ने कर्म बंधन के कारण के रूप में अविद्या को प्रमुख कारक माना है। इसके विपरीत जैन दर्शन में अविद्या के साथ-साथ अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग को कर्मबंधन का महत्त्वपूर्ण कारण माना जाता है। अद्वैतवादी बंधन और मोक्ष को व्यवहारिक दृष्टि से सत्य तो स्वीकार करते हैं परंतु पारमार्थिक दृष्टि से वे इसे मिथ्या, भ्रमपूर्ण और अवास्तविक सिद्ध करते हैं। दूसरी तरफ जैनों ने आत्मा के बंधन और मोक्ष को मिथ्या या अवास्तविक न मानकर सत्य माना है। इसी के आधार पर ये सांसारिक और मुक्त जीवों की व्याख्या करते हैं। आचार्य शंकर मोक्ष प्राप्ति के लिए एकमात्र ज्ञान को ही आवश्यक मानते हैं। दूसरी तरफ मोक्ष के साधन के रूप में कर्म और ज्ञान-कर्म समुच्चय के दावों की भी समीक्षा करते हैं कि कर्म से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है क्योंकि कर्म का परिणाम किसी वस्तु को आरम्भ करना है, लेकिन मोक्ष नित्य है और और किसी भी नित्य वस्तु का आरम्भ नहीं किया जा सकता। लोक में जिस वस्तु का भी आरंभ होता है वह अनित्य हुआ करती है। अतः मोक्ष कर्मारब्ध नहीं है। ज्ञान में भी सभी प्रकार के ज्ञान को नहीं, बल्कि तत्त्वज्ञान को ही मोक्ष-प्राप्ति हेतु महत्त्वपूर्ण बताया गया है। जबकि जैन परम्परा में ज्ञान के साथ-साथ सम्यग्दर्शन एवं सम्यग् चारित्र को भी मोक्ष प्राप्ति का अनिवार्य साधन माना गया है।५
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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