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कर्म, बंधन, मोक्ष : जैन और अद्वैत दृष्टिकोण निर्मल करने के लिए कर्म आवश्यक है। परंतु ज्ञान के पूर्व ही कर्म का महत्त्व है। आत्मज्ञान तो अंतिम सोपान है। आत्मज्ञानी के लिए कर्म का कोई प्रयोजन नहीं। ज्ञान की अग्नि तो सभी कर्मों को भस्म कर डालती है। अतः कर्म का प्रयोजन तो व्यवहारिक है, ज्ञान के उदय होने के पूर्व हैं। ज्ञानोदय के पश्चात् तो कर्म का अंधकार सर्वदा और सर्वथा समाप्त हो जाता है। परंतु ज्ञानोदय के लिए साधक को साधन चतुष्टय अथवा त्रिरत्न की साधना करनी पड़ती है। ___ इनकी सहायता से साधक मोक्ष का अधिकारी बनता है। साधनचतुष्टय आत्मा
और ब्रह्म के द्वैतभाव को नष्ट करता है। साधक ब्रह्मस्वरूप बन जाता है। जबकि त्रिरत्न स्वयं मोक्षस्वरूप है और यह आत्मा के अनंत चतुष्टय का प्रकाशक। साधन चतुष्टय नित्यानित्य वस्तु विवेक, इहमुत्रार्थभोग विराग, शमदमादिसाधन सम्पत और मुमुक्षत्व का संयुक्त रूप है। त्रिरत्न : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र के रूप में विख्यात है। सदेह और विदेहमुक्ति __सदेहमुक्ति और विदेहमुक्ति के संबंध में जैन एवं अद्वैतवादी द्वारा प्रस्तुत विचार
अवलोकनीय है। वेदान्ती विदेहमुक्ति को ही प्रमुखता प्रदान करते हैं। जैन भी विदेहमुक्ति को ही सर्वोत्तम मानते हैं। परंतु इस मतसाम्य में भी पर्याप्त अंतर है। दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि मोक्ष प्राप्त व्यक्ति का शरीर प्रारब्ध कर्मानुसार विद्यमान् रहता है। परंतु वह व्यक्ति संसार के प्रपंचों से दूर रहता है। मोह उसे सताता नहीं, शोक उसे अभिभूत नहीं करता, सांसारिक विषय के लिए उसे तृष्णा नहीं होती। यह जीवितावस्था में ही मुक्ति है। वेदान्ती इसे जीवन्मुक्त कहते हैं जबकि जैन इसे तीर्थंकर प्रारब्ध कर्मों के समाप्त होते ही उसका शरीर छूट जाता है। यह विदेहमुक्ति की अवस्था है। जैन-परम्परा में इसे सिद्धावस्था कहा गया है।
आचार्य शंकर जीवन्मुक्ति (सदेहमुक्ति) का प्रतिपादन करते हए कहते हैं कि ज्ञानी जीवितावस्था में ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है। सर्प के उतारे हुए केंचुल के समान जीवन्मुक्त का शरीर पडा रहता है। जीवन्मुक्त शरीर में स्थित वह आत्मा अशरीर है, अमृत, प्राण और ब्रह्म है। स्वयं प्रकाश है और वस्तुतः वह नेत्रविहीन भी सनेत्र के समान है, श्रोत्रहीन भी सश्रोत्र के समान है, वाणीरहित भी वाणीसहित सा, मनरहित भी मनसहित सा है। जीवन्मुक्त का भोग शरीरपात से पूर्व तक निर्लिप्त पुरुष की फलरहित क्रिया मात्र है।