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________________ रञ्जन कुमार मनोवृत्तियाँ (कषाय और मोह) और कर्म-वर्गणा के पुद्गलों में पारस्परिक संबंध है। वस्तुतः बंधन की दृष्टि से जड कर्मपरमाणु और आत्मा में निमित्त और उपादान का संबंध है। कर्म-पुद्गल बंधन के निमित्त कारण हैं और आत्मा उपादान कारण। एकांत रूप से न तो आत्मा बंधन का कारण है और न ही कर्मपुद्गल ही, अपितु दोनों के पारस्परिक संयोग से आत्मा बंधन में आता है। इस तथ्य का भान एकमात्र ज्ञान से ही संभव है। कर्म, ज्ञान और मोक्ष मोक्ष आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान अनात्मज्ञान (अविद्या) की निवृत्ति है। अतः मोक्ष ज्ञानसाध्य है। परंतु यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि कर्म की उपयोगिता क्या है? क्या कर्म का कोई महत्त्व नहीं है? यदि ज्ञान ही मोक्ष का साधन है तो सभी प्रकार के कर्म लौकिक, अध्यात्मिक (वैदिक) कर्म व्यर्थ हैं। इस संबंध में शंकर और जैन दोनों ही कर्म और ज्ञान की पारस्परिकता को उदाहरण के द्वारा समझाते हुए इनके वैशिष्ट्य का विवेचन करते हैं। आचार्य शंकर इस हेतु पारमार्थिक एवं व्यवहारिक दोनों ही दृष्टियों का सहारा लेते हैं जबकि जैन मतावलंबी पारम्परिक रूप से इसका समाधान प्रस्तुत करते हैं। मोक्ष के लिए ज्ञान और कर्म दोनों को आवश्यक मानते हैं। शंकर ज्ञान और कर्म में अन्धकार और प्रकाश के समान नितांत भेद मानते हैं। प्रकाश के सामने अंधकार का कोई महत्त्व नहीं है। ज्ञान होने पर कर्म-सम्पादन व्यर्थ है, आत्मज्ञानी के लिए कर्म निष्प्रयोजन है। यह पारमार्थिक दृष्टिकोण है। व्यवहारिक दृष्टि में कर्म का प्रयोजन है। कर्म से ही चित्त शुद्धि होती है और विशुद्धचित्त में ही शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मज्ञान संभव है। अतः कर्म विशुद्धि का मार्ग है। जैन चिन्तकों का भी इस संबंध में समान मत है। उनका यह मानना है कि चारित्रशुद्धि के बिना मुक्ति कभी भी संभव नहीं है। क्योंकि चारित्र धर्म है। यह चारित्रधर्म तत्त्वज्ञान से पुष्ट होता है। आगम में इसे शील कहा गया है। शील के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना शील की प्रवृत्ति नहीं होता। इन्द्रियों के विषयों से विरत् रहने वाले व्यक्ति ही शीलवान होते हैं और वे ही निर्वाण प्राप्त करते हैं।१७ __ केवल काम्य कर्मों को छोडकर अन्य सभी वैदिक कर्म ज्ञान में सहायक होते हैं। कर्म से ही शरीर की शुद्धि होती है। शरीरशुद्धि से ही चित्त-शुद्धि होती है। चित्तशुद्धि से विशुद्धज्ञान (आत्मज्ञान) होता है। अतः शरीर को पाप रहित और चित्त को
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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