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अनेकान्त कुमार जैन आध्यात्मिक अनेकान्त इन दोनों से आगे बढकर कोई नयी ही चेतना का संचार करता है। यहाँ मुख्यता-गौणता का दर्शन उपादेयता और हेयता के पार्श्व में होता है। यहाँ आत्मानुभव की प्रबल विधेयात्मकता शेष समस्त बन्धन स्वरूप प्रतीत होने वाले तत्त्वों के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण की उत्पत्ति का सहज कारण बन जाती है। शास्त्रीयता का सहारा लेकर वस्तु स्वरूप को तो यहाँ भी समझ जाता है किन्तु उसमें से आत्माराधना में जो साधकतत्व हैं उनको उपादेय तथा शेष अन्य को हेय बतलाया जाता है। इस क्षेत्र में ‘सार सार को गहि लहे थोथा देड् उडाय' वाली सूक्ति का सहारा लिया जाता है। इस क्षेत्र में जिसे हेय करना है; अतिरेक में उसके प्रति निषेध की भाषा मुखरित होने लगती है। जिस प्रकार अपने पुत्र की किसी हरकत से परेशान होकर नाराज पिता यह कहता है कि 'जा तेरा मेरा कोई संबंध नहीं। न तू मेरा पुत्र है और न मै तेरा बाप। मेरे लिए तू मर गया समझो।' यहाँ वस्तुस्थिति यह है कि पिता के कहने या मानने से उनका पितृत्व और पुत्र का पुत्रत्व धर्म समाप्त नहीं हो जाता और न ही पुत्र मर जाता है। मेरे लिए तो मर गया समझो' का अर्थ मात्रं दृष्टि परिवर्तन से है वस्तु स्थिति परिवर्तन से नहीं। उसी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि में 'निमित्त मेरे लिए कुछ नहीं, निश्चय व्यवहार झूठा', 'जगत मिथ्या' जैसे वाक्य मात्र दृष्टि परिवर्तन की अपेक्षा से कहे जाते हैं; वस्तुस्थिति के परिवर्तन की अपेक्षा से नहीं। जहाँ तक वस्तुस्थिति की बात है आध्यात्मिक दृष्टि भी एक किस्म की वस्तुस्थिति है और यह तथ्य स्पष्ट न होने के कारण अध्यात्म के प्रति कभी-कभी एकान्तवाद का आरोप भी लगाया जाता है। किन्तु उसके भाषात्मक पक्ष से परे जाकर उसके हार्द को समझने का प्रयत्न किया जाय तो हम वहाँ भी अनेकान्त ही पायेंगे जो वस्तुत: मोक्षमार्ग की प्रथम व अनिवार्य शर्त है। द्वैत से अद्वैत की ओर जाना, भेद से अभेद की ओर जाना ही लक्ष्य है। इसलिए हम अध्यात्म को सम्यक् अनेकान्त से सम्यक् एकान्त तक पहुँचाने वाला एक सशक्त माध्यम मान सकते हैं। अनेकान्त का प्रयोजन व लाभ ___ अध्यात्म शैली में वस्तु स्वरूप बतलाने वाले श्रीमदराजचन्द्र अनेकान्त का प्रयोजन बतलाते हुये कहते हैं कि, "बाह्य व्यवहार के अनेक विधि-निषेध के कर्तृत्व की महिमा में कोई कल्याण नहीं है। यह कहीं एकान्तिक दृष्टि से लिखा है अथवा अन्य कोई हेतु है ऐसा विचार छोडकर उन वचनों से जो भी अन्तर्मुखवृत्ति होने की प्रेरणा मिले उसे करने का विचार रखना सो सुविचार दृष्टि है।.......बाह्य