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अनेकान्त की अध्यात्मिक चिन्तन धारा
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पर्याय सम्बन्धी अनेकान्त का प्रतिपादन करते हुये कानजी स्वामी कहते हैं कि, “द्रव्य द्रव्य रूप से है और संपूर्ण द्रव्य एक पर्याय रूप नहीं है। पर्याय पर्याय रूप है और एक पर्याय संपूर्ण द्रव्य रूप नहीं है। उसमें द्रव्य के आश्रय से धर्म होता है, पर्याय के आश्रय से धर्म नहीं होता। पर्यायबुद्धि से धर्म होता है ऐसा मानना वह एकान्त है। स्वद्रव्य के आश्रय से धर्म होता है उसके बदले अंश के (पर्याय को) आश्रय से जिसने धर्म माना उसकी मान्यता में पर्याय ने ही द्रव्य का काम लिया अर्थात् पर्याय ही द्रव्य हो गई; उसकी मान्यता में द्रव्य-पर्याय का अनेकान्त स्वरूप नहीं आया है। द्रव्य दृष्टि से (द्रव्य के आश्रय से) ही धर्म होता है और पर्याय बुद्धि से धर्म नहीं होता - ऐसा मानना अनेकान्त है।"५३
अध्यात्म के क्षेत्र में आत्मा ही प्रमुख है। पुद्गल गौण है। वहाँ द्रव्य दृष्टि का अर्थ मात्र आत्मदृष्टि है। जब कि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये सभी द्रव्य ही हैं। अध्यात्म सारी व्याख्या अपने उद्देश्य को ध्यान में रखकर करता है और उसका उद्देश्य है - आत्मकल्याण।
दर्शन वस्तु की व्याख्या पर बल देता है। यहाँ यह अन्तर स्पष्ट है। अनेकान्त की तीन भूमिकायें ___ अनेकान्त के संदर्भ में नये-नये अनसुने विचार सुनकर कहीं हमारे मन में इसी के प्रति संदेह उत्पन्न न हो जाये इसलिए समझने की दृष्टि से हम देखेंगे तो हम पाते हैं कि अनेकान्त आज तीन रूपों में हमारे सामने खडा है -
१. शास्त्रीय अनेकान्त (या दार्शनिक अनेकान्त) २. व्यवहारिक अनेकान्त ३. आध्यात्मिक अनेकान्त
शास्त्रीय अनेकान्त की विशेषता यह है कि वह विविधता को स्वीकारता है और उसका तात्त्विकीकरण करता है। यह अनेकान्त' को एक विधि की तरह प्रस्तुत करता है जो हमें वस्तु के अनन्त धर्मात्मक स्वरूप को समझने में मदद देता है।
व्यवहारिक अनेकान्त हमें पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वैचारिक वैविध्यता के मध्य संतुलन बैठाने में मदद करता है। व्यवहारिक अनेकान्त कई अर्थों में मौलिक है और उसकी मौलिकता शास्त्रीय अनेकान्त से कुछ पृथक् स्वरूप लिए हुए है। यहाँ मनभेदों की अस्वीकृति नही, वरन् मतभेदों की अस्वीकृति