SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त की आध्यात्मिक चिन्तन धारा २७ क्रिया के अन्तर्मुख दृष्टिहीन विधि-निषेध में कुछ भी वास्तविक कल्याण नहीं है।......अनेकान्तिक मार्ग भी सम्यक् एकान्त निजपद की प्राप्ति कराने के अतिरिक्त अन्य किसी भी हेतु से उपकारी नही है; यह जानकर ही लिखा है। यह मात्र अनुकम्पाबुद्धि से, निराग्रह से, निष्कपट भाव से, निर्दम्भता से और हित दृष्टि से लिखा है; यदि इस प्रकार विचार करोगे तो यह पदार्थ दृष्टिगोचर होगा।"१४ यदि अनेकान्त से हमें कुछ लाभ उठाना है तो हमें उसका अध्यात्म समझना पडेगा तथा उसको महत्त्व देना पडेगा अन्यथा अनेकान्त आत्मकल्याण का पथ बतलाने की अपेक्षा बुद्धिविलास मात्र का साधन बनकर रह जायेगा। कानजी स्वामी निडरभाव से इस बात की स्पष्ट घोषणा कर ही रहे हैं, 'जो जीव ऐसा अनेकान्त वस्तु स्वरूप (जैसा कि पहले कह आये हैं) समझे वह जीव निमित्त, व्यवहार या पर्याय का आश्रय छोडकर अपने द्रव-स्वभाव की ओर ढले बिना नहीं रहता; अर्थात् स्वभाव के आश्रय से उसे सम्यक् दर्शन ज्ञानादिक धर्म होते हैं। इस प्रकार अनेकान्त की पहचान से धर्म का प्रारम्भ होता है। जो जीव ऐसा अनेकान्त स्वरूप न जाने वह कभी पर का आश्रय छोडकर अपने स्वभाव की ओर नहीं ढलेगा और न उसे धर्म होगा।"५५ __आज अनेकान्त विषय को लेकर अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार हो रहे हैं। उन सम्मेलनों में देखा गया कि अनेकान्त के व्यावहारिक पक्ष और यत्किंचित् शास्त्रीय पक्ष पर तो पत्र पढे जाते हैं और चर्चायें होती हैं किन्तु इसका आध्यात्मिक पक्ष अतिमहत्वपूर्ण और मूल होते हुये भी उपेक्षित रहता है। इसका कारण जानकारी का अभाव भी हो सकता है। मैंने अपने इस लघु प्रयास में संक्षिप्त रूप से इस दृष्टि को आगे लाने की कोशिश की है। आशा है विचारक जगत् इस महत्त्वपूर्ण पक्ष पर विमर्श करेगा। संदर्भ एवं टिप्पणियाँ १. भारिल्ल, हुकुमचन्द, क्रमबद्धपर्याय, टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर १९८६, पृ. १८ २. जं जस्स जम्मि देसे जेण विहारेण जम्मि कालम्मि । णादं जिणेण णियंदं जम्मं वा अहव मरणं वा ।। तं तरस ताम्मि देसे तेण विहारेण ताम्मि कालम्मि । कौ सक्कादि वारदुं इंदो वा तह जिणिंदो वा ।।
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy