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अनेकान्त की अध्यात्मिक चिन्तन धारा
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सदैव होता ही है; तब फिर चिन्तन करें कि इस निमित्त के कारण यह हुआ' - यह बात कहाँ रहती है? और निमित्त न हो तो नहीं हो सकता'- यह प्रश्न भी कहाँ रहता है? यहाँ कार्य होने में और सामने निमित्त होने में कही समयभेद नहीं है। निमित्त का अस्तित्व कही भी नैमित्तिक कार्य की पराधीनता नहीं बतलाता। वह मात्र अपनी अपेक्षा नैमित्तिक कार्य को प्रकट करता है; जैसे पूछा जाए कि निमित्त किसका? तब उत्तर दिया जाएगा कि जो नैमित्तिक कार्य हुआ उसका। यह सब बातें दृष्टि की हैं। अनेकान्त हर दृष्टि का महत्त्व स्वीकारता है। ज्ञापक स्वभाव की दृष्टि होने से निमित्त के साथ का सम्बन्ध टूट जाता है। ज्ञानी की दृष्टि में भी कर्म के साथ का निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध छूट गया है। __ वस्तु स्वरूप में अन्याय नहीं है। जो चीज जैसी है उसको वैसा जानना और मानना यही सम्यकत्व है। इसमें पंथ, धर्म, सम्प्रदाय और पक्षव्यामोह को अवकाश ही कहाँ रहता है? यहाँ निमित्त और उपादान दोनों के प्रति आस्ति-नास्ति का अछूता पहलू है। आध्यात्मिक अनेकान्त यही है। निश्चय और व्यवहार सम्बन्धी अनेकान्त
निश्चय नय और व्यवहार नय के माध्यम से वस्तु स्वरूप को समझने का प्रथम प्रयास भगवती में किया गया। वहाँ फणित प्रवाही (गीला) गुड को दो नयों से समझाया गया। व्यावहारिक नय कि अपेक्षा तो वह मधुर कहा जाता है किन्तु नैश्चयिक नय से वह पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्शों से युक्त है। आगे आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहार-निश्चय नय का तत्त्वज्ञान के अनेक विषयों में प्रयोग किया है। इतना ही नहीं, बल्कि तत्त्वज्ञान के अतिरिक्त आधार के अनेक विषयों में भी इन नयों का उपयोग करके विशेष परिहार किया है। निश्चय और व्यवहार का आध्यात्मिक सूत्र बन गया - आत्माश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारः। जब यह दृष्टि आत्मा समझने के लिए प्रयुक्त की गयी तब इनके स्वरूप का और विकास हुआ। निश्चय भी आवश्यक समझा गया और व्यवहार भी। निश्चयव्यवहार के समन्वय को ही अनेकान्त की दृष्टि माना गया। केवल निश्चय को एकान्त
और केवल व्यवहार को एकान्त मानने की धारणा स्वतः पुष्ट हो गयी। कानजी स्वामी ने निश्चय व्यवहार पर भी गहन विचार किया। आचार्य कुन्दकुन्द के उत्कृष्ट आध्यात्म के रहस्य को समझने का एक सार्थक प्रयास यह भी रहा। निश्चय और व्यवहार इन दोनों को स्वीकारते हुये इन दोनों की पूर्ण स्वतंत्रता पर विचार करना