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बालेश्वर प्रसाद यादव
संस्कृति के लिए खतरा उत्पन्न करने वाले विश्वयुद्ध को वैचारिक धरातल पर पटखनी देने वाला यह अनेकान्तवादी चिन्तन चित्त से पक्षपात की दुरभिसन्धि निकालकर एवं पर-मतवाद के विषय में सहिष्णुतापूर्वक विचार कर एक साथ 'जीओ
और जीने दो' के आदर्श को प्रशस्त करता है तथा सहभाव के लिए उत्प्रेरित करता है। आज जो निखिल विश्व में अशांति प्रसृत एवं व्याप्त है उसका मूलकारण एक 'वाद' का या एक संस्कृति' का दूसरे 'वाद' या दूसरी 'संस्कृति' पर मनमाने ढंग से रौब गाँठने एवं उसे न स्वीकार करना ही है। शक्तिशाली देशों को ऐसा प्रतीत होता है कि वे ही सबसे अधिक सभ्य एवं श्रेष्ठ हैं, अन्यों का स्थान उनके समक्ष नहीं रहना चाहिए; उन्हीं का धर्म एवं उन्हीं की संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है, अन्यों की नहीं। ऐसे ही, स्वयं के देश के भीतर भी भारी विरोधाभास है। साम्यवादियों को लगता है कि प्रजातांत्रिक प्रणाली गलत है और प्रजातांत्रिकों को लगता है कि साम्यवाद असफल एवं कूड़े की टोकरी में फेंके जाने वाला सिद्धान्त है। ऐसे ही विभिन्न धर्मावलंबियों की कहानियाँ हैं। वे अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता में दूसरे धर्म की आलोचना करना तथा साम्प्रदायिक सदभाव को नष्ट करने के कुत्सित प्रयास करना अपना पुनित कार्य समझते हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में जहाँ अस्तित्व का संकट खड़ा हो; वैचारिक उन्माद शारीरिक हिंसा के रूप प्रकट हो रहा हो, वहाँ जैन दर्शन के अनेकान्तवादी चिन्तन प्रणाली का प्रयोग सर्वसमावेशी सांस्कृतिक सहभाव के लिए अवश्यंभावी हो जाता है। जैन दर्शन का यह तत्त्वचिन्तन मानसिक रूप से मतान्ध हो गये व्यक्तियों के लिए दवा की खुराक के रूप में प्रयोज्य है। इसी धारणा को लक्ष्य करते हुए रामधारी सिंह 'दिनकर' ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में कहा है: “इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसन्धान भारत की अहिंसा साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना शीघ्र अपनाएगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।"१६ ४.३ सामाजिक संतुलन एवं विश्व-शान्ति ___ न केवल भारत, अपितु सम्पूर्ण विश्व में अनेक समुदायों एवं संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं। सबकी अपनी-अपनी समस्याएँ हैं। अपने देश को लीजिए। कहीं गरीबी की समस्या है, तो कहीं अशिक्षा की, कहीं दलित उत्पीड़न की समस्या है, तो कहीं जनजातियों की, कहीं अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय, तो कहीं नारी शोषण, तो कहीं पिछड़ों के हक की समस्याएँ है, कहीं-कहीं क्षेत्रवाद है, तो कहीं