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________________ ११७ अनेकान्तवाद : सर्वसमावेशी सांस्कृतिक सहभाव का दर्शन तत्कालीन दार्शनिक मतवादों के परस्पर भेदों के शमन हेतु समन्वित वैकल्पिक सिद्धान्तों को देखा जा सकता है। यथा, संग्रहनय के द्वारा वेदान्त दर्शन, ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से बौद्ध दर्शन, द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से सांख्य दर्शन तथा द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय के संयुक्त दृष्टिकोण से वैशेषिक दर्शन के परस्पर भेदोपभेदों का शमन कर एक उदार एवं सहिष्णु दृष्टिकोण के रूप में नवोन्मेषी विचारधारा को लाया जा सकता है, परन्तु यह अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के प्रविधियों द्वारा ही सम्भव है। अनेकान्त की दृष्टि विकसित कर लेने के पश्चात् व्यक्ति आत्मवत् सर्वभूतों को महत्त्व प्रदान करने लगता है। वहाँ, तब उसका न किसी से राग रह जाता है और न किसी से द्वेष। सबके प्रति अनेकान्त दृष्टि को महत्त्व देने से व्यक्ति ‘आत्मतुल्य भाव रखे' (आय तुले पयासु), ऐसा भगवान् महावीर ने उपदिष्ट किया है। इन दृष्टियों के मूल में अनेकान्त की भावना है। इस प्रकार हम यह अनुभव कर सकते हैं कि जैन मत में अनेकान्तवाद का सिद्धान्त सांस्कृतिक सहभाव हेतु आवश्यक तत्त्व या मूलाधार है। ४.२ अहिंसा की वैचारिकी ___ जैन दर्शन ने अहिंसा को जितनी सूक्ष्मता से ग्रहण किया है उतनी सूक्ष्मता अन्यत्र कहीं भी नहीं देखी गयी है। अहिंसा की वैचारिकी का मूल भी जैन दर्शन का अनेकान्तवादी तत्त्वचिन्तन ही है। जैसा कि प्रसिद्ध जैन विद्वान् डॉ० मोहनलाल मेहता ने लिखा है : “अहिंसामूलक आचार एवं अनेकान्तमूलक विचार का प्रतिपादन जैन विचार धारा की विशेषता है।"१४ वह पुनः इसके महात्म्य को बताते हुए लिखते हैं : “जैनाचार का प्राण अहिंसा है। अहिंसक आचार एवं विचार से ही आध्यात्मिक उत्थान होता है जो कर्ममुक्ति का कारण है।......... अहिंसा का मूलाधार आत्मसाम्य है। प्रत्येक आत्मा- चाहे वह पृथ्वी सम्बन्धी हो, चाहे उसका आश्रय जल हो, चाहे वह कीट अथवा पतंग के रूप में हो, चाहे वह पशु अथवा पक्षी में हो, चाहे उसका वास मानव में हो- तात्त्विक दृष्टि से समान है।"१५ जैन तत्त्वमीमांसा में अनेकान्तवाद को इतना अधिक महत्त्व देने के कारण ही हिंसा को सर्वथा- मनसा, वाचा एवं कर्मणा प्रतिवारित किया गया है। जब हम दूसरों के प्रति कदापि हिंसा नहीं करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि हम उसे अपने साथ अस्तित्व बने रहने देने में विश्वास करते हैं। यही भावना सहभाव है। अहिंसा की वैचारिकी से सह-अस्तित्व की भावना को महती बल मिलता है। वैदिक हिंसा को चुनौती देने से लेकर आजकल अशांत हो रहे सम्पूर्ण वैश्विक
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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