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बालेश्वर प्रसाद यादव
प्रमुख हैं- पहली सापेक्षता, दूसरी समन्वय एवं तीसरी सहभाव या सह-अस्तित्व की भावना। इस जगत् में यत्किचित् है, उसका प्रतिपक्ष भी अवश्य है (यत् सत् तत् सप्रतिपक्षम्)। उदाहरणार्थ, समस्त प्रकृति में जड़ एवं चेतन का समन्वय एवं सहभाव है जबकि वे दोनों ही आत्यन्तिक विरोधी तत्त्व हैं। शरीर जड़ है; आत्मा चेतन है, परन्तु दोनों का समन्वित सह-अस्तित्व है। तद्वत् चिरस्थायी एवं क्षणभंगूर, समान और असमान, दुःख और सुख, दिवा और रात्रि, प्रजातंत्र एवं राजतंत्र, एकत्ववाद और अनेकत्ववाद आदि प्रतिपक्षी युग्म सम्पूर्ण विरोधों के उपरान्त भी सहभाव में स्थित रहते हैं। इन युग्मों की वास्तविकता एवं जागतिक उपयोग न जानने के कारण ही विवाद एवं विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है।
धार्मिक एवं दार्शनिक मतवादों में मतभेद के कारण व्यक्तियों के एकांगी प्रतिपादन की कुण्ठित दृष्टि सहभावन की भावना को कमजोर करने लगती है। जब व्यक्ति दूसरे पक्ष का सुनता नहीं, केवल अपनी ही बात मनवाने या थोपने की इच्छा रखता है तब समन्वय या सहभाव की स्थिति समाप्त हो जाती है। जब 'तू' या 'मैं' की भावना प्रबल हो जाये, तथा 'तू' और 'मैं' की भावना शिथिल पड़ जाये तभी संघर्ष उठ खड़ा होता है। संसार के बड़े से बड़े युद्ध का कारण यही छोटा-सा 'तू' या 'मैं' रहा है। इसे तार्किक ढंग से निम्नवत् देखा जा सकता है : 'या तो 'तू' रहेगा या 'मैं' रहँगा' = त या म = त X म ___ इस तर्कवाक्य का अन्तिम निष्पादन ‘एकतत्त्ववाद' या 'ऐकांगितावाद' के रूप में परिलक्षित होता है जो जैन दर्शन को स्वीकार्य नहीं है, जबकि इसी के स्थान पर यदि यों कहा जाय :
'तू' रहेगा और 'मैं' भी रहूँगा' = त व म = त म __ तो इस तर्कवाक्य के अन्तिम निष्कर्ष से यह स्पष्ट हो जाता है कि हम दोनों का अस्तित्व होगा; यहाँ सह-अस्तित्व का बोध हो रहा है, अर्थात् इससे वाक्य में अनेकान्तवादी दृष्टिकोण समाहित होने का पता चलता है। __ जैन दर्शन के अनेकान्त दृष्टि को अपनाकर समस्त विरोधों का शमन सम्भव हो सकता है। "परस्पर विरोधी माने जाने वाले धर्मों का एक ही द्रव्य में अविरोधी समन्वय करना अनेकान्तवाद की देन है"११ अनेकान्तवाद से सहभाव या सहअस्तित्व की भावना जागृत होती है जिससे सहिष्णुता एवं विचार की स्वतंत्रता के लिए पर्याप्त अवकाश उपलब्ध हो जाता है। जैन मत के इस सिद्धान्त के द्वारा