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बालेश्वर प्रसाद यादव
या विकार नहीं है। बौद्ध दर्शन 'अर्थक्रियाकारित्व' को सत् का लक्षण मानता है, जबकि अद्वैत वेदान्त ‘त्रिकालाबाधित्वता' को सत् का लक्षण स्वीकार करता है। बौद्ध दर्शन नित्यता की अवधारणा को स्पष्टरूपेण अस्वीकार कर देता है, जबकि अद्वैत वेदान्त का 'ब्रह्म' कूटस्थ नित्य तथा 'माया' सत्-असत् - अनिर्वचनीया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भिन्न-भिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों में तत्त्व के स्वरूप एवं संख्या को लेकर गंभीर विवाद है जो सार्वभौम स्वीकार्यता के अभाव में अनावश्यक रूप से विवाद का केन्द्र बना हुआ था। ऐसे में, जैन दर्शन में तत्त्व के स्वरूप एवं संख्या को लेकर एक सर्वस्वीकार्य सिद्धान्त 'अनेकान्तवाद' के रूप में आया जो तत्त्व के स्वरूप को उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिति- इन तीनों रूपों में स्वीकार करता है। अर्थात् 'द्रव्य वह है जो सत् हो' तथा 'सत् वह है जो उत्पाद, व्यय ( विनाश) एवं ध्रौव्य (नित्यत्व) युक्त हो' । ' द्रव्य के इन तीनों विशेषताओं में कोई आत्मविरोध नहीं है, अपितु तीनों व्यवहार्यता की दृष्टि से परीक्ष्य हैं क्योंकि गुण की दृष्टि से द्रव्य में एकता, सामान्यत्व एवं नित्यता की सिद्धि होती है और पर्याय की दृष्टि से अनेकता, विशेषत्व एवं अनित्यता की । इस प्रकार जैन मत में एकान्तवाद की दृष्टि से नित्य या अनित्य के रूप में सत् के लक्षण को स्वीकार नहीं किया गया है। अर्थात् द्रव्य कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य । गुण सापेक्ष वह नित्य है तथा पर्याय सापेक्ष अनित्य है। इस प्रकार सत् को नित्य, अनित्य, चेतन, अचेतन, कूटस्थ और क्षणिक सभी प्रकार से स्वीकार करने वाले तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त को अनेकान्तवाद कहते हैं।
वास्तव में जैन दर्शन सर्वसमावेशी दार्शनिक चिंतन को प्रश्रय देता है। इसके अनुसार एकान्तवाद किसी एक दृष्टिकोण का ही समर्थन करता है। यह या तो सामान्य या विशेष के रूप में मिलता है; या तो कभी सत् या असत् के रूप में उपस्थित होता है; कभी तत्त्व निर्वचनीय या अनिर्वचनीय के रूप में, तो कभी हेतु या अहेतु के समन्वय के रूप में स्वीकार होता है । इस प्रकार अनेक सिद्धान्तों के रूप में एकान्तवाद अपने को दार्शनिक 'वाद' के रूप में उपस्थापित नहीं कर पाता है। पर्याप्त व्यवहार्य एवं सार्वभौम स्वीकार्य तर्कों के अभाव में सभी एकान्तवादी दृष्टिकोण वाले मतवाद परस्पर शत्रुता भाव से संबंधित होकर नकारात्मक तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, समाज एवं नीतिमीमांसा का निर्माण कर डालते हैं जिससे समाज में संघर्ष एवं वर्चस्व की अंध होड़ शुरू हो जाती है। वास्तव में जैन दर्शन की दृष्टि में प्रत्येक धर्म या मत की एक मर्यादा है जो स्वयं की विशिष्टोपपन्न तर्क से उद्भासित है। उसका उल्लंघन न