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अनेकान्तवाद : सर्वसमावेशी सांस्कृतिक सहभाव का दर्शन
१११ जगत् में वस्तुएँ तो अनेक हैं ही, साथ ही उन वस्तुओं के धर्म भी अनेक हैं। इस प्रकार
जैन दर्शन तत्त्व को अनन्तधर्मात्मक मानता है क्योंकि प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। यहाँ 'धर्म' शब्द गुण, लक्षण या विशेषता के अर्थ में आया है। ‘अनेक' पद का अर्थ है- एक से अधिक। इस प्रकार 'अनेकान्तवाद' पद यद्यपि कोशीय अर्थ में नकारात्मक है, पदार्थ की दृष्टि से नकारात्मक नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार, "अनेकान्त शब्द जैनागमों में उपलब्ध नहीं है। यह शब्द सर्वप्रथम दार्शनिक सिद्धान्तों के रचनाकाल के आरम्भ में पाया जाता है। संभवतः सिद्धसेन दिवाकर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इसका प्रयोग किया।" इससे यह स्पष्ट है कि तत्त्व के स्वरूप को लेकर जब विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों में मतभेद गहवर हो गये तब जैन दर्शन ने सर्वसमावेषी सिद्धान्त के रूप में अनेकान्तवाद' का आविष्कार कर एक सर्वमान्य तत्त्वमीमांसा उपस्थापित करने का प्रयास किया।
जैन दर्शन द्रव्य के दो प्रकार के धर्म को स्वीकार करता है- स्वरूप धर्म एवं आगन्तुक धर्म। इस तरह जैनाचार्यों ने द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि द्रव्य वह है जिसमें स्वरूप धर्म और आगन्तुक धर्म पाये जाते हैं। स्वरूप धर्म द्रव्य के अपरिवर्तनशील एवं नित्य लक्षण को कहते हैं जिसके अभाव में द्रव्य का अस्तित्व सम्भव नहीं है। यथा, चेतना जीव का स्वरूप धर्म है; मृत्तिका घट का स्वरूप धर्म है। आगन्तुक धर्म द्रव्य के परिवर्तनशील लक्षण है। ये लक्षण द्रव्य में आते हैं और चले भी जाते हैं। इनके अभाव में भी द्रव्य अपने अस्तित्व को बनाये रख सकता है। उदाहरणार्थ- सुख, दुःख, इच्छा, संकल्प आदि जीव के आगन्तुक लक्षण या धर्म हैं जबकि रंग, रूप आकारादि घट-पटादि के आगन्तुक धर्म हैं। जैन दर्शन स्वरूप धर्म को गुण (अट्रीब्युट) एवं आगन्तुक धर्म को पर्याय या विकार (मोड) कहता है। एतत्प्रकार जैन मतानुसार, द्रव्य वह है जो गुण एवं पर्याय वाला हो।' भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के तत्त्वमीमांसीय विकास के आरम्भ में विभिन्न दर्शनों के तत्त्वविचार भिन्न-भिन्न थे जिनमें सार्वभौम एकता का स्पष्ट अभाव था। कुछ दर्शन तो ऐसे थे जो तत्त्व के स्वरूप को परम नित्य मानते थे और कुछ अन्य उसे परम क्षणिक या अनित्य मानते थे। सांख्य दर्शन में प्रकृति को नित्य एवं परिणामी दोनों माना गया है, परन्तु पुरुष तत्त्व को परम नित्य माना गया है जिसका विकार या परिणाम नहीं होता। वैशेषिक दर्शन के अनुसार पृथ्वी तत्त्व कारणरूप में नित्य तथा कार्यरूप में क्षणिक या अनित्य है, परन्तु आत्मा, ईश्वर एवं आकाश में कोई परिणाम