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________________ ११० बालेश्वर प्रसाद यादव समानान्तर तत्त्व को बहुल रूप में ज्ञात कराने वाला सिद्धान्त स्याद्वाद कहलाता है। जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा के इस सिद्धान्त का कथ्य एवं लक्ष्यार्थ केवल तत्त्व तक ही सीमित कर देना अनेकान्तवाद एवं जैन दर्शन को एक सीमा तक सीमित कर देने जैसा होगा। इस सिद्धान्त को परिपूर्ण अर्थवत्ता तभी प्राप्त हो सकती है जब इसका उपयोग समाज एवं नीति दर्शन के परिप्रेक्ष्य में बहुलवादी सांस्कृतिक सह-अस्तित्व के आधार-सिद्धान्त के रूप में भी किया जाय। प्रस्तुत शोध-आलेख में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि जैन दर्शन के तत्त्वमीमांसा को चित्रित करने वाला यह सिद्धान्त (अर्थात् 'अनेकान्तवाद') समाज एवं आचारमीमांसा के क्षेत्र में भी सर्वसमावेशी सांस्कृतिक सहभाव (सह-अस्तित्त्व) का दर्शन है। कहने का तात्पर्य है कि यह सिद्धान्त न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व के सभी विचारधाराओं का सम्यक् सम्मान करते हुए सभी संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में विश्वास करता है जो आज के अशांत विश्व की आत्यंतिक आवश्यकता है। आज सम्पूर्ण विश्व में धन, बल, ज्ञान, सैन्य-शक्ति, धर्म, जाति, प्रजाति आदि के नकारात्मक प्रयोग एवं वर्चस्व के द्वारा स्वयं की संस्कृति को सर्वोत्कृष्ट एवं अन्य को नकारने या सर्वदाउच्छेद के लिए परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से जंग जैसी स्थिति चल रही है। सबको साथ लेकर चलने का अभाव मनुष्यों के प्रथम सांगठनिक इकाई परिवार से लेकर राष्ट्र तक में दिख रहा है। हर जगह असंतोष एवं अलगाव की चिन्गारी सुलगती द्रष्टिगोचर हो रही है। मनुष्यों एवं उनके द्वारा निर्मित संस्कृतियों के परस्पर संघर्ष के कारण सहभाव या सह-अस्तित्व के समक्ष आसन्न संकट को देखते हुए जैन दर्शन के तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद का नीति एवं समाज दर्शन में अनुप्रयोग के द्वारा उपर्युक्त समस्या का इस आलेख में एक बौद्धिक समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया २. अनेकान्तवाद भारतीय चिन्तनधारा के प्रत्येक दार्शनिक सम्प्रदाय में स्वयं की विशिष्ट पहचान उसके तत्त्व, ज्ञान एवं आचार सम्बन्धि सिद्धान्तों के कारण है। श्रमण परम्परा के अंग जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा अनेक तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार करने के कारण अनेकतत्त्ववादी या बहुत्ववादी है जिसे 'अनेकान्तवाद' के विशेष पद द्वारा अभिहित किया गया है। इसमें ‘अन्त' नामक पदांश का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ 'वस्तु' और 'धर्म' दोनों है। कहने का तात्पर्य यह है कि जैन मत में यह मान्यता है कि इस
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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