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________________ अनेकान्तवाद : सर्वसमावेशी सांस्कृतिक सहभाव का दर्शन ११३ करके उसे भी यथोचित स्थान देना ही सत्य के साथ न्याय करना है। जो व्यक्ति इस बात को न समझकर अपने आग्रह को ही जगत् का तत्त्व मान लेता है वह तत्त्व के सम्पूर्ण या दूसरे पक्ष की अवहेलना करता है। व्यक्ति स्वयं के एकान्तवादी आग्रह के कारण वस्तु के एक पक्ष को सर्वथा सत्य मान लेता है तथा दूसरे पक्ष को अस्वीकार कर देता है। एतत्कारणेन वस्तु की संपूर्णता का ज्ञान अपूर्ण रह जाता है। एक ही वस्तु में परस्परापेक्षी एवं आत्यन्तिक विरोधी दोनों ही गुण रह सकते हैं, क्योंकि एक वस्तु एक ही साथ कई गुणों या धर्मों का आश्रय बन सकती है। यही समझ अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से युक्त कहलाती है। इस तत्त्वमीमांसा का यदि प्रयोग ज्ञानमीमांसा, आचारमीमांसा, सामाजिक वैचारिकी, मनोविज्ञान, सत्ताविज्ञान एवं अन्य समावेषी अध्ययन क्षेत्रों में किया जाय तो 'अनेकान्तवाद' को उसके सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ समझा जा सकता है। अनेकान्तवाद को समझने के लिए जैन दर्शन में विकसित ज्ञानमीमांसा का प्रयोग अब हम अग्रवत् करेंगे। ३. अनेकान्तवाद और स्याद्वाद __ जैन दर्शन में 'स्याद्वाद' का विकास अनेकान्तवाद' को समझाने वाले उपकरणसिद्धान्त के रूप में हुआ है। यह सिद्धान्त एक प्रकार से मानवीय ज्ञान की सीमा रेखा को भी इंगित करता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता पृथक्पृथक् एवं सीमित है। कोई भी व्यक्ति वस्तु के सभी धर्मों का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। यह पर्याप्त सम्भव है कि कोई विशिष्ट लक्षण या धर्म किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा जाना जाय और अन्य दृष्टिकोण का ज्ञान किसी अन्य व्यक्ति विशेष द्वारा हो क्योंकि वस्तु तो अनन्तधर्मात्मक है और सभी धर्मों का ज्ञान होना किसी एक मनुष्य के द्वारा सम्भव नहीं है। मनुष्य जैसे-जैसे ज्ञान प्राप्त करता जाता है, वैसे-वैसे उसका कथन भी करता जाता है। यह सम्भव है कि एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्म उपस्थित हों और उनका पृथक्-पृथक् देश-काल- परिस्थिति में ज्ञान हो रहा हो। ऐसी स्थिति में हम ‘स्यात्' पद का प्रयोग करते हुए कथन को उपस्थापित करने का प्रयास करते हैं। इसका लाभ यह होता है कि हम आत्यन्तिक सत्य का दावा नहीं कर पाते। हमारे ज्ञान का प्रत्येक कथन एक 'नय' कहलाता है जिसमें केवल एक आंशिक सत्य को ही अभिव्यक्त करने की क्षमता रहती है क्योंकि किसी व्यक्ति का एक कथन पूर्ण नहीं होता, वह केवल सापेक्ष हो सकता है जिसका कथन किसी एक 'नय' के द्वारा हो सकता है। जैन दर्शन के अनुसार यह कथन करना कि 'यह स्यात् सत् है', प्रमाण
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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