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________________ १०६ नीतू बाफना उदाहरण 'उत्तराध्ययन' सूत्र के यहाँ प्रस्तुत हैं - अध्ययन ९ - नमिराज ऋषि से देव लोग सरिसे, अंतेउरवगओं वरभोए। भुंजितु नमिराया, बुद्धो भोगे परिच्चयई ॥३॥ मिहिलं सपुर-जणवयं, बलमोरोहं च परियणं सव्वं। चिच्चा अभिनिक्खंतो, एगंत महिडिओ भवयं ॥४॥ देवलोक के समान काम भोगों, अन्तः पुर, राज्यलक्ष्मी सबको त्याग कर नमिराज ऋषि दीक्षित हो गये। अध्ययन १४-इषुकार नरेश और उनकी कमलावती रानी चइता विउलं रजं, काम भोगे य दच्चए। निविसया निरामिसा, निन्नेहा निप्परिणहा ॥४९॥ विशाल राज्य और दुस्तजय काम भोगों को छोडकर राजा और रानी भी विषय आसक्ति से रहित, इच्छाओं से रहित, स्नेह (कुटुम्बीजनों के प्रेम) रहित, बाह्यअन्तरंग परिग्रह से मुक्त हुए। आगमज्ञों ने अपरिग्रह व्रत की सुरक्षा हेतु पाँच भावनाओं का निर्देशन किया है। सबसे प्रथम मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों के कर्णगोचर होने पर साधक कैसी दृष्टि रखे, उसका कथन निम्न प्रकार से किया है। श्रोत इन्द्रित की जय करने की भावना - मणुन भद्दएमु ण तेसु समणेणं, सज्जियव्वं, न गिज्झियव्वं,न हसियव्वं, न मुज्झियव्वं, न विनिग्घायं, आवज्जियव्वं न लुभिधव्वन, न तुसियत्वं। मनोज्ञ और प्रिय शब्दों को सुनने पर संयमी को उन पर आसक्ति नहीं रखनी चाहिए और राग भी नहीं करना चाहिए, न गृद्धि भाव रखें और न विस्मयपूर्वक हँसे, उनमें मूर्छित न होये न उन पर न्योछावर हो। उनको पाने के लिए ललचाये नहीं और प्राप्ति होने पर प्रसन्नता प्रकट न करें। अमणन्नु पावएसुण तेसु समणेणं, रूसियव्वं, न हीलियव्वं, न निंदियव्वं, नखिसियव्वं न छिदियव्वं, न भिदियव्वं न वहे यव्वं। अमनोज्ञ और अशुभ पापकारी वचनों को सुनकर श्रमण रोष नही करे, न उनकी हीलना, अवज्ञा, निंदा करे, न उन पर खीझना चाहिए और न उस वस्तु को तोडे (भांगे) भेदन कर भयानक शब्दों में डरायें और न मारपीट करे। जिस प्रकार श्रोतेन्द्रिय के शुभ-अशुभ शब्दों के कर्णगोचर होने पर समभाव रखने
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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