________________
जैन आगमों में अपरिग्रह
१०७ की शिक्षा दी गई है, वैसे ही चक्षु इन्द्रिय के विषय सुन्दर प्रिय रूप और कुरूप अप्रिय रूप देखकर, मनमोहक सौरभ और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों का घ्राण इन्द्रिय के संयुक्त होने पर, मधुर स्वादिष्ट और कडवे नीरस व्यंजनों के रसना इन्द्रिय के संयोग होने पर और कोमल, मृदु और रुक्ष-कठोर पदार्थों के स्पर्श होने पर संयमी अनुकूल संयोग पर हर्ष से आह्लादित न होये और विपरीत प्रसंगों पर डाट फटकार, तिरस्कार, नाक भौंह सिकोडना, घणा नफरत न करता हुआ ऐसा चिन्तन करे कि यह तो पुद्गलों का पूरन गलन धर्मा स्वभाव है, जो पलटता ही रहता है। जो वस्तु आज आकर्षक और लुभावनी है, वही कालान्तर में अदर्शनीय और घृणा का पात्र बन जाती है। युवावस्था में जो शरीर का निखार होता है वही बुढापे में कुरूप हो जाता है। पुद्गलों । के गुण धर्म परिवर्तन सम्बन्धी छठे अंग ‘ज्ञाताधर्म कथांग' के बारहवे अध्ययन में सुबुद्धि प्रधान ने खाई (नगर के गंदे नाले) के पानी को जो महा दुर्गन्धमय, अशुभ वर्ण, गंध, रसवाला था, उसको प्रयोग द्वारा सुगन्धित, स्वादिष्ट और पथ्य रूप में परिवर्तन कर नृप को आस्वादन कराया। राजा भी उस पानी को पीकर विस्मित हुआ। इसका सुन्दर अनुपम दृष्टान्त है। 'उत्तराध्ययन सूत्र' के ३२ वें अध्ययन में भी प्रभु ने यही भाव दर्शाये हैं। उसका सार निम्न गाथा में निचोड रूप में भर दिया है -
जे सद्द रूब रस गंधमागए, फासे य संपप्प मणुण्णपावए।
गेही पओसं न सरेज्ज पंडिए स होति दंते, विरए, अर्किचणे।। जो मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की प्राप्ति में राग नहीं करता और अमनोज्ञ पर द्वेष नही करता, वही पंडित है, विरत, शांत, अकिंचन यानि अपरिग्रही
परिग्रह यानि दुष्ट संयोग पर प्रीति-रतिभाव और अनिष्ट पर अप्रीति-अरति भाव ये दोनों ही मानसिक संकल्प, विकल्प, जन्म-मरण रूप संसार है और अपरिग्रह यानि इन भावों से विमुक्त होने या समभाव रखना ही संसार से किनारा करना है। दूसरे शब्दों में, अपरिग्रह मोक्ष का भव्य द्वार है जिसके आराधन से जीव साधक कालान्तर में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होता है।
___ संदर्भ एवं टिप्पणियाँ १. Maitra, S. K., Ethics of Hindues, p. 223 २. दशवैकालिक, ६/२१ ३. मधुकर मुनि, अपरिग्रह-दर्शन, पृ. ८-९