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________________ जैन आगमों में अपरिग्रह १०५ बोलों की आराधना करने से अपरिग्रही साधक अपनी मंजिल की ओर निर्विघ्नता से प्रगति करता है। अपरिग्रह की महिमा और स्वरूप का कथन आगमकारों ने श्रेष्ठ वृक्ष की उपमा द्वारा किया है। महावीर स्वामी के श्रेष्ठ वचनों से प्ररूपित परिग्रह - निवृत्ति ही उसका विस्तार है और सम्यक्त्व ही वृक्ष की मूल है। धृति (धैर्य) ही उसका स्कंध और विनय-नम्रता उसकी वेदिका (थला) है। अपरिग्रह का तीन लोक में विस्तृत यश इसका तना है और पाँच रूप इसकी विशाल शाखायें हैं । अनित्य आदि बारह भावनायें अपरिग्रह वृक्ष की त्वचा (छाल) और शुभध्यान, प्रशस्त योग और ज्ञानरूप पत्ते और अंकुर से यह वृक्ष शोभित है। निर्लोभ आदि गुण रूप फूलों से यह वृक्ष अलंकृत है और शील ही उसका सौरभ है। अनाश्रव नवीन कर्मों का अग्रहण ही उसका फल है। इस अपरिग्रह का बीज मोक्ष का बोधि बीज रूप है और यही उसकी मिना सार रूप है। इस उपमा के अन्त में शास्त्रकार बतलाते है कि मेरू पर्वत के शिखर के चोटी के समान यह मोक्ष जाने के लिए निर्लोभता श्रेष्ठ मार्ग का शिखर रून है, यानि अपरिग्रह मोक्ष के मार्गों में सबसे श्रेष्ठ है । अपरिग्रही के लिए बहुमूल्य, अल्पमूल्य वस्तुओं का संग्रह न करना, संचित पदार्थ त्याज्य है और प्रासुक एषणीय पदार्थ ही ग्राह्य है। व कौन कौन से दोष टालना, वस्त्र, पात्र आदि कितने रखने का कल्प है। इन सब प्रवृत्तियों के विधिनिषेध रूप आचरण आगम पाठ ' जत्थ न कप्पई.. . भायणभंडोगहि उवरगरण' में दृष्टव्य है। अपरिग्रही व्यक्ति की पहचान उसके समता, क्षमा, सरलता, मृदुता, सत्य आदि गुणों और तदरूप आचरण से प्रतिबिम्बित होती है, जिसका विस्तृत विशद वर्णन मूल पाठ एवं से संजते विमुते एगे चरेज धम्मं' में निहित है। त्यागी के रूप में अपरिग्रही को 'दशवैकालिक सूत्र' अ. २, गाथा ३ जे य कंते विपे भोएं, लद्धे विपिट्ठिकुव्व । - साहिणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्च । । प्रदर्शित किया है। जो मनोहर प्रिय भोगने योग्य वस्तुओं को प्राप्त कर और भोगने में स्वाधीन होते हुए भी उनकी तरफ पीठ कर देता है अथात् त्याग देता है, वही सच्चा त्यागी अर्थात् अपरिग्रही है। ऐसे महात्यागी साधक आगम के पृष्ठों में यत्र तत्र चमक रहे हैं। उनमें से दो
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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