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________________ १०४ नीतू बाफना किसी भी प्रकार का पदार्थ शारीरिक सुख हेतु ग्रहण नही किया है। उसे अपरिग्रह कहते है। ऐसे सम्पूर्ण रूप से अपरिग्रही विश्व में पंच महाव्रतधारी श्रमण निर्ग्रन्थ ही हैं। ‘आवश्यक सूत्र' में यह उनका पाँचवा महाव्रत है। श्रमण निर्ग्रन्थ तीन करण, तीन योग से समस्त प्रकार के परिग्रह के त्यागी हैं। फिर भी वे अपने शरीर के निर्वाह के लिए शीत, गर्मी की रक्षा व धार्मिक क्रिया करने हेतु वस्त्र, पात्र, धार्मिक उपकरण आदि रखते ही हैं। क्या यह परिग्रह नहीं है? इसके समाधान में स्वयं चरम तीर्थकर ने 'दशवकालिक' सूत्र अ. ६, गाथा २१ में प्ररूपणा की है - ण सो परिग्णहो वुत्तो, णायपुत्तेण ताइणा। . "मुद्दा परिग्गहो वुत्तो" इह वुत्तं महेसिणो।। __छ: कायों के रक्षक ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने अनासक्ति भाव से वस्त्र, पात्र आदि रखने को परिग्रह नहीं कहा है, किन्तु मूर्छाभाव को ही (वस्तु पर आसक्ति रखने को) परिग्रह कहा है। इसी अध्ययन की १९ वी गाथा में प्रभु ने चेतावनी दी है कि पदार्थ का संग्रह करना तो दूर, सिर्फ संग्रह की इच्छा (मानसिक संकल्प) करने वाला साधु, साधु नहीं वरन् गृहस्थ है - लोहस्सेस अणुप्फासों, मण्णे अणयरामवि। जे सिया संणिहिकामे, गिरी पव्वाइए ण से।। अनेक आगम शास्त्रों में अपरिग्रह सम्बन्धी वर्णन उपलब्ध है परन्तु उसका सांगोपांग विवेचन 'प्रश्नव्याकरण सूत्र' में ही है। इसके पंचम अपरिग्रह संवर द्वार में निम्न बिन्दुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। (१) अन्तरंग परिग्रह से विरति । (२) अपरिग्रह का महत्व स्वरूप । (३) अपरिग्रह की पहचान । (४) अपरिग्रह व्रत को पुष्ट करने वाली पाँच भावनाएँ । श्रमण निर्ग्रन्थ समस्त बाह्य परिग्रह का त्यागकर अकिंचन भिक्षु होता है, फिर भी उसके मन में व्यक्त वस्तुओं पर ममता मोह रूप अन्तरंग परिणाम न होवे और दोषों से जागरूक रहने हेतु इस संवर द्वार में ३३ बोलों की प्ररूपणा की गई है जैसे एक प्रकार का असंयम, दो भेद राग, द्वेष इस तरह से एक २ बोल की वृद्धि करते हुए तैंतीसवें बोल में तैंतीस प्रकार की आशातना टालने का निर्देश है। हेय, ज्ञेय, उपादेय रूप इन
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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