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________________ ९४ अनिल कुमार तिवारी असमानता, असमानता की भावना आदि व्याप्त है वहाँ सभी से यह अपेक्षा करना कहाँ तक व्यावहारिक है कि वे पर्यावरण को स्वच्छ बनाने के लिए समान रूप से त्याग और अहिंसक आचरण करेगें? इसके उत्तर में दो बातें कही जा सकती है। पहली बात यह कि जैन परम्परा आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन को एक दूसरे से असम्बद्ध या पृथक पृथक नहीं देखती। आचरण के नियम सबके लिए एक ही हैं चाहे कोई संन्यासी हो या गृहस्थ। अन्तर केवल इतना है कि संन्यासियों से इन नियमों का दृढतापूर्वक पालन अपेक्षित है जबकि सामाजिकों के लिए उनकी विशेष भूमिका के कारण कुछ छूट दी गयी है। दूसरी बात यह कि परम्परा जीवन के सभी रूपों को समान मानती है, एक जीव का दूसरे जीव से कोई गुणात्मक भेद नहीं है। ऐसी मान्यता के कारण एक जीवन किसी अन्य जीवन का साधन बहुत ही संकुचित अर्थ में हो सकता है। जिस प्रकार चर्म और अस्थि के लिए पालतू एवं जंगली जानवरों का विनाश किया जा रहा है तथा भोजन के लिए भूचरों और जलचरों का अतिशय शिकार किया जा रहा है यह जैन मत में सर्वथा अस्वीकार्य है। __ आज सम्पूर्ण विश्व को यह अनुभव हो चुका है कि पर्यावरण एक ऐसा कारक है जो किसी राष्ट्र की सीमा नहीं जानता। विश्व के किसी एक भाग में हुआ पर्यावरण क्षरण शेष विश्व को प्रभावित करता है। अनेक विविधताओं के बावजूद संपूर्ण विश्व कम से कम पर्यावरण के मामले में एक (जीवित) इकाई है। जिस प्रकार किसी प्राणी के किसी एक अंग पर लगी चोट उसकी पूरी कार्य क्षमता को प्रभावित करती है उसी प्रकार पृथ्वी के एक भाग में हुआ पर्यावरण असंतुलन आज नहीं तो कल संपूर्ण ग्रह को प्रभावित करेगा। विश्व के अनेक भागों में बार-बार प्रलयकारी बाढ आने, सूखा पडने, ध्रुवों पर बर्फ पिघलने, ओजोन परत का क्षरण होने, महाद्वीपों पर धुंए का बादल छाने जैसे लक्षण पर्यावरण की गम्भीर दशा का संकेत करते हैं। दुर्भाग्यवश तथाकथित विकास की अन्धी दौड में इन्हें अनदेखा किया जा रहा है। संकट से निपटने की गम्भीरता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि १९७३ ई. में प्रारम्भ किये संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण सम्बन्धी कार्यक्रम (United Nations Environmental Program-UNEP) को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए प्रायः अनुदान ही उपलब्ध नहीं हो पाता है। शायद हमें विकास सम्बन्धी अवधारणा के साथ-साथ लोगों की मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। यह स्पष्ट है कि पर्यावरण का स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है कि लोग एक
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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