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जैन परंपरा में पर्यावरण
उसके मूल में झांकना चाहिए। मनुष्य का मन और हृदय ही वह स्थान है जहाँ वास्तविक हिंसा का उदय होता है। वैचारिक हिंसा ही समस्त बुरे आचरण की जननी है। इसलिए वैचारिक पवित्रता का विशेष महत्त्व है। हिंसक को समूल नष्ट करने के लिए मानवीय हृदय की मलिनता को दूर करना आवश्यक है। जैन दर्शन में हिंसा को इसके व्यापक अर्थ में लेते हुए इसमें मन, वचन और कर्म तीनों से होने वाली हिंसा को शामिल किया गया है। हिंसा करने के पूर्व मनस् उस पर विचार करता है। यह विचार ही हिंसा का जनक है। जैन दर्शन में हिंसा के विचार को भावहिंसा तथा उसे कार्यान्वित करने को द्रव्यहिंसा कहा गया है। वाणी और कर्म विचार की ही अभिव्यक्ति है । इनके द्वारा वैचारिक हिंसा का ही कार्यान्वयन होता है। इसलिए वैचारिक हिंसा ही मूलहिंसा है। किसी के प्रति अप्रिय या अपमानजनक शब्दों का प्रयोग वाणी की हिंसा है तथा सबसे स्पष्ट कार्मिक हिंसा है जिसमें किसी कार्य के माध्यम से किसी को नुकसान पहुँचाया जाता है। जैन दर्शन तीन स्थितियों में किसी व्यक्ति के आचरण को हिंसक करार देता है। वह व्यक्ति द्वारा स्वयं किया गया हो (कृत) या दूसरे द्वारा करवाया गया हो । ( कारित) या किसी हिंसक कार्य का अनुमोदन किया गया हो ( अनुमोदना ) ।
सामान्यतया हिंसा का मतलब लोग दूसरों के प्रति की गयी हिंसा ही समझते है। जैन दर्शन में एकेन्द्रिय से लेकर बहुरेन्द्रिय जीवों के प्रति जिनका प्रसार सृष्टि के कणar में है, किया गया क्रूर व्यवहार हिंसा कहा गया है। अपनी आध्यात्मिक यात्रा में भगवान महावीर ने समस्त प्राणियों के प्रति सहानुभूति, उदारता, जीवन की पवित्रता और विभिन्न दृष्टियों में सामञ्जस्य की आवश्यकता का अनुभव किया और समस्त मानव समुदाय से उसका अनुसरण करने का आग्रह किया। उनका विश्वास था कि समस्त सृष्टि परस्पर निर्भर है एक भाग दूसरे का विरोधी नहीं बल्कि पूरक है एक दूसरे की अपेक्षा रखता है। जैन मत का मूल्यांकन
पर्यावरण की समस्या एक सामाजिक समस्या है। जैसे परम्परा द्वारा सुझाये गए अहिंसा और अपरिग्रह के मार्ग वस्तुतः व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति के लिए उपयुक्त माने जाते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि व्यक्तिगत मुक्ति के लिए स्वीकृत मार्ग को एक सामाजिक समस्या के निराकरण हेतु कैसे प्रयोग किया जाय। आज के विश्व में जहाँ अनेक मत मतान्तर, सामाजिक सांस्कृतिक विविधता, जीवन-स्तर की
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