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मूकमाटी-मीमांसा :: lxvii
और ही' जान पड़ते हैं। वे काव्योचित शब्दार्थ या काव्य की भाषा माने जाते हैं। इसीलिए प्रतिभा' का स्वरूप निरूपित करते हुए कहा गया है कि वह 'अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमप्रज्ञा' ही है। प्रश्न यह है कि वस्तु में प्रतीत यह अपूर्वता वस्तु की निजी विशेषता है या उत्पादित ? आनन्दवर्धन और कुन्तक- दोनों ही अपने-अपने ढंग से इसका उत्तर देते हैं। आनन्दवर्द्धन का पक्ष है कि काव्य भी एक प्रस्थान है, जीवन के चरम प्रयोजन के लाभ का और यह लाभ है 'निजचित्स्वरूपविश्रान्ति' या 'स्वरूपबोध' । कवि इनकी दृष्टि से दो प्रकार के हैं-परिणत प्रज्ञ और प्राथमिक या आभ्यासिक । प्राथमिक या आभ्यासिक कवि की तो नहीं परन्तु परिणत प्रज्ञ कवि का व्यापार, कवि कर्म तदनुरूप 'विभावादि संयोजनात्मा' होता है। उनकी दृष्टि में यही कवि का मुख्य कर्म है। सर्जक काव्य निर्माणवेला में इसी आस्वादमय स्वरूपबोध की लोकोत्तर भूमि पर प्रतिष्ठित होता है । इस काव्यानुभूति के आवेश में निष्णात शब्दार्थ जब जैविकी प्रक्रिया से व्यक्त होते हैं तो कुछ और या अपूर्व जान पड़ते हैं। इस प्रातिभ आवेश में निसर्गजात फूट पड़ने वाले काव्यप्रवाह के अन्तर्गत अलंकार के निमित्त अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता । वह अपृथग्यत्लनिर्वर्त्य' होता है। रहा गुण, वह तो उस आस्वाद की निसर्ग सिद्ध विशेषता है । इस प्रकार प्रातिभ आवेश में स्वत: समुच्छ्वसित काव्यभाषा 'गुणालंकारमण्डित' होकर ही निकलती है । उसका बाद में सायास मण्डन नहीं होता । उसके 'वाचक और 'वाच्य' भी कुछ और होते हैं । अरस्तू इसे Strange Word कहते हैं। अजनबी या अपूर्व का अर्थ यह नहीं है कि वे अपरिचित या सर्वथा अपरिचित होते हैं आनन्दवर्धन कहते हैं : “सर्वे नवा इवाभान्ति मधुमास इव द्रुमाः”–वसन्त में जैसे रहते वे ही द्रुम हैं, पर नई आभा से मण्डित होकर नए से लगते हैं, इसी प्रकार इस काव्यभाषा की भी स्थिति है । वह परिचित होकर भी अपरिचित है, अत: 'कुछ और' या 'अपूर्व' है। शब्द और अर्थ का अभेद होने से यह अपूर्वता उभयनिष्ठ है। वह कहते हैं : “वाच्यानां च काव्ये प्रतिभासमानानां यद् रूपं तत्तु ग्राह्यविशेषाभेदेनैव प्रतीयते।" शास्त्र और व्यवहार की बात छोड़िए, काव्य में जो (वाचक और) वाच्यार्थ प्रतीत होता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्राह्य जैसा यानी प्रत्यक्षायमाण लगता है, अपनी समस्त व्यक्तिगत विशेषताओं के साथ । व्यवहार और शास्त्र में मात्र अर्थ ग्रहण होता है पर काव्य में बिम्बार्थ ग्रहण होता है, बिम्ब रूप में, संश्लिष्ट रूप में अर्थ का ग्रहण होता है । इसे अर्थ संश्लेष कह सकते हैं। इसी में कवि की सर्जनात्मक प्रतिभा का प्रकाश होता है । कहा जा सकता है कि आनन्दवर्धन चारुता या अपूर्वता केवल भाषा के व्यंजक और व्यंग्यमय शब्दार्थ में ही मानते हैं, पर यहाँ तो उस अपूर्वता की सत्ता वाच्यार्थ में भी बताई जा रही है, सौ कैसे ? व्यंजना स्वरूपबोधमय आस्वाद की प्रक्रिया है । पण्डितराज के शब्दों में वह स्वरूप पर पड़े हुए आवरण का भंग है । उन्होंने कहा है : “व्यक्तिश्च भग्नावरणा चित्” - व्यक्ति या व्यंजना निरावरण चित् का ही नामान्तर है जो विज्ञानवादी बौद्धों की भाँति स्वरूपभूत आनन्द या आस्वाद का प्रकाशक होता है । 'प्रकाश'कार ने कहा है : “स्वाकार इव"-विज्ञान अपने ही आकार का प्रकाशक होता है । वस्तुत: कवि की प्रतिभा कोई नियम नहीं जानती, वह किसी नियम या सिद्धान्त से नहीं बँधती, तब इस नियम से कैसे बँध जायगी कि काव्योचित चारुता का सम्बन्ध व्यंजक शब्द या व्यंग्य अर्थ से ही है। यही तो प्रतिभा का स्वातन्त्रय है कि वह चारुता का उद्रेक कहीं भी कर सकती है, वाच्यार्थ हो या व्यंग्यार्थ।
महिमभट्ट ने भी प्रतिभा या कवि व्यापार का स्वरूप निरूपित करते हुए माना है कि वह कविरूपी शिव की तीसरी आँख है जिससे वह व्यवहित-अव्यवहित, विप्रकृष्ट-अविप्रकृष्ट यानी देशकालगत और देशकालातीत समस्त विश्व के पदार्थजात का साक्षात्कार करती है । उनका कहना है कि पदार्थ का स्वरूप दो प्रकार का होता है- सामान्य
और विशिष्ट । सामान्य स्वरूप परोक्ष प्रमाण से प्राप्त होता है और विशिष्ट रूप एक मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण से । यही प्रत्यक्षग्राह्य विशिष्ट रूप ही सत्कवियों की प्रतिभाप्रसूत वाणी का विषय बनता है। कारण, प्रतिभा नाम की जो उसकी तीसरी आँख है, उससे वह पदार्थजात की असाधारणता, विशिष्टता, कुछ और का ग्रहण करती है । क्रोचे ने भी कहा