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________________ lxviii :: मूकमाटी-मीमांसा है ज्ञान का इण्ट्यूटिव रूप 'व्यक्ति' या 'विशिष्ट' को और लाजिकल रूप ‘सामान्य' को अपना विषय बनाता है । प्रतिभा द्वारा दृष्ट पदार्थ का यह असाधारण रूप, अपूर्व रूप, सुन्दर रूप पदार्थ का स्वाभाविक धर्म है, उत्पादित या आरोपित नहीं है। कुन्तक भी इसी तथ्य को अपने ढंग से रेखांकित करते हैं। उनका भी मानना है कि प्रतिभा ही कवि व्यापार है और वही वक्रता है। काव्यभाषा की, सामान्य भाषा की अपेक्षा जो वैशिष्ट्य है, वह इसी प्रतिभा की प्रसूति है। इन पारम्परिक भारतीय आचार्यों के उपर्युक्त विवेचन से जो निष्कर्ष निकलता है वह यह कि चारुता या पदार्थगत सुभग तत्त्व पदार्थ के स्पन्दमय स्वभाव में है । उसे सक्षम सर्जक प्रतिभा से कुरेदकर उभार देता है, वैयक्तिक विशेषताओं से मण्डित (अर्थ मात्र नहीं) संश्लिष्ट अर्थ या बिम्बार्थ का उपस्थापन करता है । हाँ, यदि प्रतिभा की नैसर्गिक आँख सर्जक में नहीं है तो वह उपस्थाप्य अर्थ में रमणीयता का आधान करता है, ऊपर से डालता है। ये सर्जक प्राथमिक या आभ्यासिक हैं। वक्रोक्तिजीवितकार ने इन दोनों प्रकार के कविकर्मो को दृष्टिगत कर कहा है : “लीनं वस्तुनि येन सूक्ष्मसुभगं तत्त्वं गिरा कृष्यतेनिर्मातुं प्रभवेन्मनोहरमिदं वाचैव यो वा कविः । वन्दे द्वावपि तावुभौ ।" अर्थात् प्रतिभा सम्पन्न कवि वस्तुमात्र में अव्यक्त रूप से निहित सूक्ष्म सुभगतत्त्व को अपनी वाणी से उभारकर सहृदय ग्राहक को दृष्टिगोचर करा देता है, पर जिसमें यह आँख नहीं है, वह भी प्रयत्नपूर्वक वर्ण्यवस्तु को मनोहर बना देता है। दोनों ही प्रकार के कवि वन्दनीय हैं। जो आधुनिक आलोचक भारतीय आचार्यों के काव्यार्थ- संश्लिष्ट अर्थ या बिम्बार्थ के विवेचन को नहीं जानते और जो नहीं जानते कि उनके मत से अलंकार और गुण अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य' और 'स्वभावधर्म' हैं, वे कुछ भी कहते हैं और कह सकते हैं । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से लेकर डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी और डॉ. जगदीश गुप्त आदि तक यह कहते सुने जाते हैं कि पारम्परिक आचार्यों ने बिम्बार्थ की चर्चा नहीं की है। इन नवचिन्तकों को पारम्परिक काव्यशास्त्र की गम्भीरता और व्यापकता का मनोयोगपूर्वक अनुशीलन करना चाहिए । इस बिन्दु पर आगे और विचार किया जायगा। ___सम्प्रति, लगे हाथ शैली वैज्ञानिकों का भी काव्य-भाषा के सम्बन्ध में क्या अभिमत है, यह देख लेना चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि वह काव्यभाषा के स्वरूप-विश्लेषण के सन्दर्भ में कितना आगे बढ़ता है ? बढ़ता है या नहीं बढ़ता है ? ____ इधर नए भाषाविदों ने 'आलोचना की नई भूमिका' अदा करने वाले 'शैलीविज्ञान' की चर्चा की है। शैलीविज्ञान' Stylistics का रूपान्तर है। 'विज्ञान' के साथ 'रीति' का जोड़ना जितना संगत है, 'शैली' का नहीं। कारण, भारतीय काव्यशास्त्र की रीति' की आन्तरिक प्रकृति वस्तुनिष्ठ है और 'विज्ञान' की भी। विपरीत इसके 'शैली' में आत्मनिष्ठता की प्रतिष्ठा है । भारतीय आचार्यों ने 'मार्ग' या 'रीति' को स्वभाव (दण्डी और कुन्तक) से जोड़कर 'स्वभाव' को भी वस्तुनिष्ठ' कर दिया है, कम से कम इस सन्दर्भ में । स्टाइलिस्टिक्स भी मानता है कि काव्यभाषा सामान्य भाषा पर ही समाधृत है, इसीलिए परिचित है फिर भी अपनी सर्जनात्मक प्रकृति के कारण 'अपरिचित' सी लगती है । सामान्य भाषा रूढ़ अर्थ के बोध द्वारा व्यवहार चलाती है या व्यवस्थित या शास्त्रीय होकर हमारे बोध की परिधि का विस्तार करती है। काव्यभाषा सर्जक या रचनाकार के अ-व्यक्तिगत स्तर पर स्वानुभूत सत्य का आकर्षक ढंग से सम्प्रेषण करती है। उसका सम्प्रेष्य संवेद्य सौन्दर्य या सुन्दर अनुभूति है । इसका ग्रहण प्रतिभा' सहकृत शब्द से होता
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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