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________________ lxvi:: मूकमाटी-मीमांसा इस प्रकार कृति का वैचारिक पक्ष न केवल आमुष्मिक अपितु ऐहिक पक्ष से भी समृद्ध है । प्रस्तुत कृति का भाषापक्षीय विवेचन भाषा यदि सम्प्रेषण का माध्यम है तो कवि की कल्पना के लिए ऐसा विश्व में कुछ भी नहीं है जो कुछ न कुछ उसे सम्प्रेषित न करता हो । अत: व्यापक अर्थ में भाषा का स्वरूप अपरिमेय और अपरिभाष्य है। 'मूकमाटी' की भाषा ऐसी न होती हुई भी ऐसी ही है। उसमें क्या नहीं बोलता । न बोलना भी बोलता है, मौन भी मुखर है । प्रस्तुत प्रसंग में भाषा का यह स्वरूप अनुपयोगी है । इस सन्दर्भ में भाषा-कवि की भाषा, कवि कर्म की भाषा, काव्य की भाषा वागर्थमयी है । गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है : “आखर अरथ कविहिं वलु साँचा । अनुहरि ताल गतिहिं नट नाचा ॥" ध्वनिप्रस्थान परमाचार्य आनन्दवर्धन ने भी महाकवि की पहचान बताते हुए कहा है : “सोऽर्थस्तद्व्यक्तिसामर्थ्ययोगी शब्दश्च कश्चन । यलतः प्रत्यभिज्ञेयौ तौ शब्दार्थो महाकवेः ॥" ध्व.प्र.उ./८ अर्थात् महाकवि की अपनी पहचान 'कुछ और' ही अर्थ और उसकी अभिव्यक्ति के अनुरूप सामर्थ्य सम्पन्न और ही शब्द के प्रयोग में है । ये शब्दार्थ यत्नपूर्वक पुन: पुन: अनुसन्धान या भावन की अपेक्षा करते हैं। भारतीय आचार्यों ने व्यवहारोपयोगी और शास्त्रीय या व्यवस्थित चिन्तन में उपयोगी सामान्य भाषा' से 'काव्यभाषा' का व्यतिरेक निरूपित करते हुए कहा है कि सामान्यभाषा का प्रयोजन या तो व्यवहार चलाना होता है या ज्ञान की परिधि का विस्तार । काव्यभाषा में ये बातें गौण होती हैं । उसका सम्प्रेष्य 'कुछ और ही होता है, जिसे प्रयोजनातीत प्रयोजन कहा गया है- कांट के शब्दों में Purposeless Purpose. इसे शब्दान्तर से अ-व्यक्तिगत आस्वाद कह सकते हैं, अ-लौकिक सौन्दर्य संवेदन कह सकते हैं सहृदयग्राहक की दृष्टि से । सर्जक उसी मनोदशा का सम्प्रेषण अनुरूप वाग्भंगिमा से करता है । भारतीय परम्परा विधेयात्मक पद्धति पर उसे अपनी प्रकृति में सामाजिक और शिव मानती है । समाजानुमोदित सामग्री को सुन्दर ढंग से सम्प्रेषित करने के लिए (समाजानुमोदित मनोदशा में) सर्जक जिस भाषा को अपनी अनुरूपता में पकड़ता है, वही काव्यभाषा है । आनन्दवर्धन इसे 'ललितोचितसन्निवेशचारु' कहते हैं और पण्डितराज 'समुचितललितसन्निवेशचारु'। अभिनव गुप्त 'ललित' की व्याख्या करते हुए उसे 'गुण और अलंकार'परक मानते हैं। गुणअलंकारमण्डित काव्यभाषा आस्वाद के भावन में समर्थ होती है, इसीलिए वह उचित है । पण्डितराज का आशय स्पष्ट करते हुए नागेश भट्ट कहते हैं कि यदि सन्निवेश- शब्दसन्निवेश सम्प्रेष्य आस्वाद के अनुरूप है तो वह समुचित है और समुचित है तो ही 'ललित' है। मतलब भारतीय साहित्यिक परम्परा में दोष रहित भाषा ही काव्यभाषा बनती है जब गुण और अलंकार से मण्डित हो । कुन्तक सामान्य भाषा को काव्यभाषा बनने के लिए आवश्यक मानते हैं कि वह कवि की प्रतिभा से प्रसूत वक्रता या बाँकपन से मण्डित हो। यह बाँकपन व्यवहार और शास्त्र की पिटी-पिटाई लीक से हटकर प्रयुक्त की गई काव्यभाषा में होता है । कुन्तक सम्प्रेष्य 'चारुता' या 'सौन्दर्य' को प्रतिभा-प्रसूत मानता है । वह कहता “यत् किंचनापि वैचित्र्यं तत्सर्वं प्रतिभोद्भवम् ।" काव्य में सम्प्रेष्य 'चारुता' प्रतिभा या कविव्यापार से ही उत्पन्न है । इसी चारुता से मण्डित होकर शब्दार्थ 'कुछ
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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