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502 :: मूकमाटी-मीमांसा सत्-शास्त्र के मनन, श्रीगुरु के भाषण, विज्ञानात्मा स्फुट नेत्रों की सहायता से जो साधक यहाँ स्व-पर के अन्तर को जान लेता है वही मानों सभी प्रकार से परमात्मा रूप शिव को जान लेता है। सुधी वही होता है जो इष्टोपदेश का ज्ञान प्राप्त करे और अवधानपूर्वक उसे जीवन में उतारे । मान-अपमान में समान रहे । वन हो या भवन - सर्वत्र साधक को निराग्रही होना चाहिए । उसे चाहिए कि वह निरुपम मुक्ति-सम्पदा पाले और भवों का नाश कर भव्यता प्राप्त करे । इस प्रकार इसमें अनिष्टकर स्थितियों से निवृत्ति और इष्टकर स्थितियों में प्रवृत्ति की बात है। गोम्मटेश अष्टक (१९७९)
आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्रणीत प्राकृत भाषाबद्ध 'गोम्मटेस-थुदि' कृति का आचार्यश्री द्वारा पद्यानुवाद प्रस्तुत हुआ है । इस कृति में गोम्मटेश बाहुबली भगवान् का स्तवन हुआ है :
"काम धाम से धन-कंचन से सकल संग से दूर हुए, शूर हुए मद-मोह-मार कर समता से भरपूर हुए। एक वर्ष तक एक थान थित निराहार उपवास किये; इसीलिए बस गोमटेश जिन मम मन में अब वास किए" ॥८॥
कल्याणमन्दिर स्तोत्र (१९७१)
___ आचार्यश्री कुमुदचन्द्र प्रणीत प्रस्तुत कृति मूलत: संस्कृत भाषा में निबद्ध है । आचार्यश्री ने उसका पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है । इस कृति में उन कल्याणनिधि, उदार, अघनाशक तथा विश्वसार जिन-पद-नीरज को नमन किया गया है जो संसारवारिधि से स्व-पर का सन्तरण करने के लिए स्वयम् पोत स्वरूप हैं। जिस मद को ब्रह्मा और महेश भी नहीं जीत सके, उसे इन जिनेन्द्रों ने क्षण भर में जलाकर खाक कर दिया । यहाँ ऐसा जल है जो आग को पी जाता है । क्या वाड़वाग्नि से जल नहीं पिया गया है ?
"स्वामी ! महान गरिमायुत आपको वे, संसारि जीव गह, धार स्व-वक्ष में औ । कैसे स आश भवसागर पार होते; आश्चर्य ! साधु जन की महिमा अचिन्त्य"।।१२।।
नन्दीश्वर भक्ति (१६ जून, १९९१)
आचार्य पूज्यपाद प्रणीत संस्कृत भाषाबद्ध नन्दीश्वर भक्ति' का पद्यबद्ध भावानुवाद आचार्यश्री द्वारा सम्पन्न किया गया है इस कृति में :
"द्वीप रहा जो अष्टम जिसने 'नन्दीश्वर' वर नाम धरा, नन्दीश्वर सागर से पूरण, आप घिरा अभिराम खरा। शशि-सम शीतल जिसके अतिशय-यश से बस ! दश दिशा खिली; भूमण्डल ही हुआ प्रभावित, इस ऋषि को भी दिशा मिली" ॥११॥