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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 503 इस प्रकार पूरी कृति नन्दीश्वर भक्ति से आपूरित है। समाधिसुधा-शतकम् (१९७१) आचार्य पूज्यपाद प्रणीत संस्कृत भाषाबद्ध 'समाधितन्त्र' का आचार्यश्री द्वारा पद्यानुवाद प्रस्तुत किया गया है। इस कृति में उन अधोगामी जीवों की भर्त्सना की गई है जिन्होंने मिथ्यात्व के उदय से जड़ देह को ही आत्मा समझ रखा है । ऐसा मोहग्रस्त रागी अपने स्वभाव' को कभी नहीं समझ सकता । अत: रचयिता कहता है : "जो ग्रन्थ त्याग, उर में शिव की अपेक्षा, मोक्षार्थ मात्र रखता, सबकी उपेक्षा । होता विवाह उसका शिवनारि-संग; तो मोक्ष चाह यदि है बन तू निसंग" ॥ ७१ ॥ "जो आत्म ध्यान करता दिनरैन त्यागी, होता वही परम आतम वीतरागी। संघर्ष में विपिन में स्वयमेव वृक्ष; होता यथा अनल है अयि भव्य दक्ष !" ॥९८ ॥ योगसार (१९७१) आचार्य योगीन्द्र देव द्वारा रचित अपभ्रंश भाषाबद्ध योगसार' का पद्यानुवाद राष्ट्रभाषा में आचार्यश्री द्वारा लोकहितार्थ किया गया है । इस कृति में रचयिता की प्रतिश्रुति है : "जो घातिकर्म रिपु को क्षण में भगाये, अर्हन्त होकर अनन्त चतुष्क पाये। तो लाख बार नम श्री जिन के पदों में; पश्चात् कहूँ सरस श्राव्य सुकाव्य को मैं" ॥२॥ “जो हैं जिनेन्द्र सुन ! आतम है वही रे ! 'सिद्धान्तसार' यह जान सदा सही रे ! यों ठीक जानकर तू अयि भव्ययोगी ! सद्य: अत: कुटिलता तज मोह को भी" ॥ २१ ॥ एकीभाव (१९७१) आचार्य वादिराज प्रणीत संस्कृत भाषाबद्ध इस कृति का 'मन्दाक्रान्ता छन्द' में पद्यबद्ध भाषान्तरण आचार्यश्री द्वारा किया गया है । इस कृति में यह कहा जा रहा है कि जब आराधक के हृदय में आराध्य से एकीभाव हो गया है, तब यह भव-जलन कैसे हो रही है ? "कैसे है औ ! फिर अब मुझे दु:ख दावा जलाता ?" ॥६॥ रचयिता का हृदय पुकार उठता है :
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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