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मूकमाटी-मीमांसा :: 495 विदितविश्व ! विदा विजितायते ! ननु नमस्तत एष जिनायते" ॥२॥ राष्ट्रभाषा में अनूदित 'निरञ्जन-शतक' में इस पद्य का भाव अवलोकनीय है :
“स्वामी, अनन्त-गुण-धाम बने हुए हो, शोभायमान निज की द्युति से हुए हो। मृत्युंजयी सकल-विज्ञ विभावनाशी;
वन्दूँ तुम्हें, जिन बनूं सकलावभाशी(षी)" ॥२॥ हे अज, (परमे तिष्ठति - इति परमेष्ठी) शान्ति विधायक, सुखस्वरूप ! आपकी स्तुति से आपका सुखप्रद श्रद्धान अथवा आपकी स्तुति की किरणावली मेरे इस हृदय में परमार्थ से उस तरह अत्यधिक प्रवेश कर रही है जिस तरह की प्रभापुंज सूर्य की किरणें सच्छिद्र घर में प्रवेश करती रही हैं। इस स्तवन से सभी स्तोताओं का हृदय प्रकाशमय हो सकता है। ३. 'भावना-शतकम्' (संस्कृत, ११ मई, १९७५) एवं 'भावना-शतक' (हिन्दी, १० अगस्त, १९७५, अपरनाम 'तीर्थंकर ऐसे बने')
श्री गुरु और शारदा के स्तवन के अनन्तर अपने प्रति श्रुतविषय पर आते हुए मुनिश्री की केवल यही भावना है कि 'विभाव' भाव पर विजय पाई जाय-आत्मा में संक्रान्त आगन्तुक दोषों का नाश किया जाय । गन्तव्यानुरूप भावना में चेतना निरन्तर एकतान रहे तो सिद्धि मिल सकती है । वस्तुत: यह सारा खेल भावना का ही है । यही प्रबल साधना है । उसके अवलम्ब से साधक अभीष्ट तक पहुँच सकता है । भावना से दर्शनमोह नष्ट हो जाता है-अनन्त कषाय नि:शेष हो जाता है-सद्भारती की यह ऊर्ध्वबाहु घोषणा है । मुनिश्री का दृढ़ विश्वास है :
. "तं जयताजिनागमः श्रय श्रेयसो न येन विना गमः ।
न हि कलयति मनागमस्त्वां मदो यद् भवेऽनागमः" ॥ ७ ॥ 0 “भवता निजानुभवतः प्रभोः प्रभावना क्रियतां हि भवतः।
मनोऽवन् मनोभवत: क्षणविनाशविभावविभवतः” ॥ ८९ ॥ इन दोनों पदों का मनोहारी चित्रण आपने भावना-शतक' में किया है। जहाँ कामदेव से बचने का सन्देश देते हैं, वहीं प्रभावना को भी बताते हैं :
"था, हे जिनागम, रहे जयवन्त आगे, पूजो इसे तुम सभी, उर बोध जागे। पाते कदापि फिर ना भवदुःख नाना;
हो मोक्षलाभ, भव में फिर हो न आना" ॥ ७७ ॥ - “भाई सुनो, मदन से मन को बचाओ,
संसार के विषय में रुचि भी न लाओ। पाओ निजानुभव को, निज को जगाओ;