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494 :: मूकमाटी-मीमांसा
खण्ड तीन : आचार्य विद्यासागर का रचना-संसार
'समग्र : आचार्य विद्यासागर' (एक) कवयिता आचार्यश्री विद्यासागर श्रमण धारा के शिखर पुरुष हैं। 'खेद' और 'तप' के अर्थ वाली 'श्रमु' धातु से निष्पन्न श्रमण' शब्द इनके सन्दर्भ में नितान्त अन्वर्थ है । इस तपोमूर्ति ने जिस भी सात्त्विक क्षेत्र में कदम रखा-उसी में अपना उल्लेख्य स्थान बना लिया । इनके तप का एक पक्ष सारस्वत तप भी है। उस प्रशस्त और पुष्कल तप का साक्षी है – 'समग्र : आचार्य विद्यासागर' । इसके चार खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में इनकी संस्कृत भाषाबद्ध मौलिक रचनाएँ उन्हीं के भावानुवाद सहित संग्रहीत हैं । इस खण्ड में कुल पाँच शतक हैं-श्रमण-शतकम्, भावना-शतकम्, निरञ्जनशतकम्, परीषहजय-शतकम् (अपरनाम ज्ञानोदय) तथा सुनीति-शतकम् । १. 'श्रमण-शतकम्' (संस्कृत, ६ मई, १९७४) एवं श्रमण-शतक' (हिन्दी, १८ सितम्बर, १९७४)
'श्रमण' यह एक योगरूढ़ संज्ञा है। श्रमु' धातु से ल्युट् प्रत्यय होने पर यह शब्द निष्पन्न होता है। 'तप' और तज्जन्य खेद' इसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है, पर प्रवृत्तिनिमित्त की दृष्टि से प्रचलनवश एक विशिष्ट धारा के तपस्वियों के लिए यह रूढ़ हो गया है। भारत में सनातनी विद्या की अभिव्यक्ति द्विविध है-शाब्द और प्रातिभ । प्रातिभ अभिव्यक्ति वाली धारा के तपस्वियों के लिए यह संज्ञाशब्द रूढ़ हो गया है । यों तप और तज्जन्य खेद सभी आध्यात्मिक धाराओं में है, पर रूढ़ि जैन और बौद्ध धारा के तपस्वियों के लिए ही है। इसमें भी ध्यान-साधना तो उभयत्र समान है- पर तप में जैन मुनियों की बराबरी कोई नहीं कर सकता । जैन धारा में भी दिगम्बरी तप अप्रतिम है। आचार्यश्री ने ठीक ही कहा
है
“यो धत्ते सुदृशा समं मुनिर्वाङ्मनोभ्यां च वपुषा समम् ।
विपश्यति सहसा स मं ह्यनन्तविषयं न तृषा समम्" ॥४॥ इस पद्य का आपने स्वयं ही काव्यानुवाद 'श्रमण-शतक' (हिन्दी) में किया है :
"वाणी, शरीर, मन को जिसने सुधारा, सानन्द सेवन करे समता-सुधारा । धर्माभिभूत मुनि है वह भव्य जीव;
शुद्धात्म में निरत है रहता सदैव" ॥ ८४॥ ये तपस्वी मदमत्त करणकुंजरों को स्वभाव में प्रतिष्ठित होने के लिए वशीभूत कर लेते हैं। विस्मयावह है इनकी तपस्या। २. 'निरञ्जन-शतकम्' (संस्कृत, २३ मई, १९७७) एवं 'निरञ्जन-शतक' (हिन्दी, १६ जून, १९७७)
इस शतक में निरञ्जन जिनेश्वर अथवा सिद्ध परमेष्ठी का स्तवन किया गया है ताकि भवभ्रमण ध्वस्त हो सके। उन्होंने ठीक ही कहा है :
"निजरुचा स्फुरते भवतेऽयते, गुणगणं गणनातिगकं यते !