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496 :: मूकमाटी-मीमांसा
सद् धर्म की फिर अपूर्व प्रभावना हो" ॥ ८९ ॥ जो साधु, समाधि से रहित हो अहंकार आदि अपकार को नहीं रोकता है वह मन्तु-परमेष्ठी को प्राप्त करने में समर्थ नहीं है। स्वकीय आत्मा को नमन करता हुआ मैं उस चौर मानव-परपदार्थों को अपना मानने वाले मानव की कभी इच्छा नहीं करता । मुनिश्री जिनवर को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि यथार्थतः निज स्वभाव में लीन अपददिगम्बर-निर्ग्रन्थ साधु से ही यह वैयावृत्य सुशोभित होता है, इस प्रकार, जिस प्रकार षट्पद भ्रमर से कमल और पद व्यवसाय उद्योग से जनपद, देश सुशोभित होता है । मुनिश्री का अनुरोध या आदेश है कि उन साधुजनों की भक्ति करो, उन्हें पूजो जो निज स्वरूप में लीन होते हुए वन से भय नहीं करते और भवन में कोई इच्छा नहीं रखते । आचार्यश्री का सन्देश है कि जिस प्रकार अग्नि के संयोग से कलंक का नाश होता है उसी प्रकार वात्सल्य भाव से आत्मा का कलंक-दोष नाश को प्राप्त होता है। ४. * परीषहजय-शतकम्' (संस्कृत, ९ मार्च, १९८२) एवं 'परीषहजय-शतक' (हिन्दी, ९ मार्च, १९८२, अपरनाम 'ज्ञानोदय')
देव, मानव, पशु या प्रकृति द्वारा अनायास आने वाली शारीरिक तथा मानसिक बाधा उपसर्ग है और सर्दीगर्मी, भूख-प्यास आदि बाधाएँ परीषह कही जाती हैं। साधु को इन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए ताकि आत्म-चिन्तन में अवरोध पैदा न हो । कर्म-निर्जरा के लिए इन्हें शान्तभाव से सहना चाहिए । इसी आशय से मुनिश्री का कथन है :
"परिषहं कलयन् सह भावतः, स हतदेहरुचिनिजभावतः ।
परमतत्त्वविदा कलितो यतिः, जयतु मे तु मन: फलतोऽयति" ॥ २३ ॥ परीषह विजय करने वाले मुनीश्वरों का स्मरण करते हुए आपने इन पंक्तियों का भावानुवाद किया है :
"तन से, मन से और वचन से उष्ण-परीषह सहते हैं, निरीह तन से हो निज ध्याते, बहाव में ना बहते हैं। . परम तत्त्व का बोध नियम से पाते यति जयशील रहे;
उनकी यशगाथा गाने में निशिदिन यह मन लीन रहे" ॥ २३ ॥ उनका दृढ़संकल्प है कि यदि कण्टकादि तृण पैरों में निरन्तर पीड़ा करता है और गति में अन्तर, व्यवधान लाता है तो मुनि उससे उत्पन्न कष्ट को वास्तव में सहन करते हैं। मुनिश्री भी भेदज्ञान के प्रताप से उस विद्यमान कष्ट को सहन करते हैं। उनका विश्वास है कि यदि साधक संयम से रहित रहा तो मात्र शारीरिक दुष्कर तप निरर्थक है । यह ठीक है कि व्रतनिरत रहे साधक, परन्तु परीषह जय बिना उसे भी सफलता नहीं मिलती। यदि समदर्शन नहीं होता तो यमदम-शम सभी व्यर्थ हैं। उस जीवन से क्या लाभ, जो पाप-कलंक में लिप्त रहता है। ऐसा जीवन खोखला है।
* नोट - इस शतक के पद्य क्र. ४ में एवं ग्रन्थ के अन्त में भी चतुर्थ खण्ड को 'परीषहजय-शतक' कहा गया है, पर मध्य में शतक के प्रारम्भ होने से
पहले भूल से 'सुनीति-शतक' मुद्रित हो गया है। इसी प्रकार ग्रन्थ के अन्त में 'स्तुति खण्ड' का उल्लेख नहीं है, पर ग्रन्थ में यह शीर्षक विद्यमान है। वस्तुत: यह शतक 'सुनीति-शतक' है।