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मूकमाटी-मीमांसा :: 475 "स्वयं पतिता है और पातिता हूँ औरों से,
''अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !" (पृ. ४) आगे यदि मानव प्रयत्न करे और उसे अच्छी संगति मिले तो वह क्या नहीं बन सकता ? इसीलिए वे कहते हैं :
"खसखस के दाने-सा/बहुत छोटा होता है/बड़ का बीज वह ! समुचित क्षेत्र में उसका वपन हो/समयोचित खाद, हवा, जल/उसे मिलें अंकरित हो. कछ ही दिनों में/विशाल काय धारण कर
वट के रूप में अवतार लेता है,/यही इसकी महत्ता है।" (पृ. ७) तदनन्तर अच्छी व बुरी संगति के परिणामों को बताते हुए आचार्यश्री ने हृदय के कपाट खोल दिए हैं। उजलीउजली जल की धारा धरा धूल में मिलने पर दल-दल बन जाती है ; वही धारा नीम की जड़ों में जाने पर कटुता में ढलती है ; सागर में गिरने पर लवणाकर कहलाती है। विषधर मुख में जा कर विष-हाला में ढलती है और सागरीय शुक्तिका में गिरकर मुक्तिका होती है। आस्था को आत्मसात् करना हो तो साधना जरूरी है :
"पर्वत की तलहटी से भी/हम देखते हैं कि/उत्तुंग शिखर का/दर्शन होता है,
परन्तु/चरणों का प्रयोग किये बिना/शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं है !"(पृ.१०) आचार्यश्री इस विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए मार्गदर्शन करते हैं :
"प्राथमिक दशा में/साधना के क्षेत्र में/स्खलन की सम्भावना पूरी बनी रहती है, बेटा!/स्वस्थ-प्रौढ पुरुष भी क्यों न हो काई-लगे पाषाण पर/पद फिसलता ही है !/इतना ही नहीं,
निरन्तर अभ्यास के बाद भी/स्खलन सम्भव है।" (पृ. ११) आगे यह बताया है कि निरन्तर परिश्रम व संघर्ष करते रहने पर विजय की प्राप्ति होती है :
"संघर्षमय जीवन का/उपसंहार/नियमरूप से/हर्षमय होता है ।" (पृ. १४) पश्चात् लम्बी-लम्बी बातें करने वालों व कोरे उपदेशकों पर व्यंग्य करते हुए एवं सही स्थिति का आकलन करते हुए आचार्यश्री ने कटु सत्य कह डाला है :
"चेतन की इस/सृजन-शीलता का/भान किसे है ? चेतन की इस/दवण-शीलता का/ज्ञान किसे है ? इसकी चर्चा भी/कौन करता है रुचि से ?/कौन सुनता है मति से ? और/इसकी अर्चा के लिए/किसके पास समय है ?
आस्था से रीता जीवन/यह चार्मिक वतन है, माँ !" (पृ. १६) इस प्रकार 'मूकमाटी' महाकाव्य की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह थोड़ी है। ['विद्यासागर' (मासिक), जबलपुर - मध्यप्रदेश ]