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'मूकमाटी': एक वीतराग सन्त साहित्यकार की काव्य-यात्रा
___के. एल. सेठी वैसे तो आचार्य श्री विद्यासागरजी का अब तक मैं केवल आध्यात्मिक महान् सन्त के रूप में ही परिचय कर पाया था, किन्तु उनकी वाणी से इस महान् आध्यात्मिक संरचना देख कर ऐसा लगा कि अन्तरतम की गहराइयों को लेकर, महान् अनुभूति पूर्ण काव्य रचना कर, आपने एक नई दिशा दी है । ऐसा प्रतीत होता है मानो 'मूकनिरीह माटी' के माध्यम से सारा जैन सिद्धान्त इस काव्य में उड़ेल दिया गया है।
माटी मूक है, पद दलित है व कुम्भकार के माध्यम से तद्गत सम्पूर्ण कंकर-पत्थरों को हटाकर वह अत्यन्त पवित्र व निर्मल शुद्ध किस प्रकार बन सकती है । तत्पश्चात् महान् तप से तप कर श्रेष्ठता के उच्च शिखर पर किस प्रकार आसीन हो सकती है, इसका सुन्दरतम वर्णन है।
वास्तव में आचार्यश्री का यह काव्य महाकाव्य की परिभाषा में पूर्ण रूप से सही बैठता है । मौलिक रूप में माटी को नायिका बनाकर कुम्भकार को नायक का प्रतीक बनाया गया है किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से इस काव्य के नायक तो स्वयं आचार्यश्री प्रतीत होते हैं पर अन्तिम नायक अर्हन्त देव ही हैं।
___ काव्य को दृष्टि में रखें तो इसमें शब्दालंकार, अर्थालंकार एवं शब्दों का अभूतपूर्व कथन कर जन साधारण के अध्यात्म व अनेकान्त का सुन्दरतम वर्णन करने का प्रयत्न श्लाघनीय है।
__ आचार्यश्री ने 'मूकमाटी' का सहारा लेकर महिला शक्ति के प्रति महान् आदर व्यक्त किया है और उनकी संयत स्थिति एवं शालीनता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
पहले खण्ड में आत्मा की प्राथमिक दशा के शोधन की प्रक्रिया का वर्णन किया है अर्थात् पहले माटी को खोदना, उसे कूट-छानकर कंकर रहित बनाना आवश्यक है, इस बात का वर्णन किया है।
__ दूसरे खण्ड में 'शब्द,' 'बोध' एवं 'शोध' का अन्तर बताते हुए आचार्यश्री ने 'उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तं सत्' के महान् सिद्धान्त का सरलता से विवेचन करते हुए स्पष्ट किया है कि उच्चारण मात्र 'शब्द' है तथा उस शब्द का अर्थ सही रूप में समझना 'बोध' है । तत्पश्चात् उस 'बोध' को स्वयं के आचरण में आत्मसात् कर लेना ही 'शोध' है।
तीसरे खण्ड में पुण्योपार्जन तथा पाप के प्रक्षालन का सुन्दर काव्यमयी उदाहरण देते हुए मन-वचन-काय की निर्मलता से, शुभ कार्यों को करने से एवं लोक कल्याण की भावना से ही पुण्य उपार्जन होता है और क्रोध, मान, माया एवं लोभ के हनन का कारण होता है।
चतुर्थ खण्ड में काव्यात्मक उदाहरण देते हुए माटी को कुम्भकार द्वारा तपा कर शुद्ध निर्मल कुम्भ का रूप दे दिया है। पश्चात् साधु को आहार दान किस प्रकार देना चाहिए, इसकी प्रक्रिया सविस्तृत की गई है। प्रसंग इतने प्रकार के दिए गए हैं कि बात में से बात निकाल कर तत्त्व चिन्तन का उच्चतम शिखर दिखा दिया गया है। साथ ही लौकिक तथा पारलौकिक भावनाओं का सुन्दरतम छविगृह निर्मित कर दिया गया है। साथ ही अन्त में स्पष्ट भी कर दिया कि गुरु तो प्रवचन ही दे सकते हैं, 'वचन' नहीं । आत्मा का उद्धार बिना पुरुषार्थ के नहीं हो सकता । अविनाशी सुख 'वचनातीत' है और वह तो साधना से ही प्राप्त ‘आत्मोपलब्धि' है।
कहना ना होगा, 'समयसार' का सारा निचोड़ आचार्यश्री ने इस महाकाव्य में समाहित कर दिया है । इसके पहले खण्ड के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश निम्न प्रकार उल्लेखनीय हैं :
"ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना/सब के वश की बात नहीं,
और वह भी."/स्त्री-पर्याय में-/अनहोनी-सी घटना !" (पृ. २) माटी की पुकार सुनाते हुए आचार्यश्री कहते हैं :