SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 562
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मूकमाटी' : महिला शक्ति के प्रति महान् आदर की अभिव्यक्ति सम्पादक : ‘सन्मार्ग' (हिन्दी दैनिक) महान् आध्यात्मिक सन्त आचार्य श्री विद्यासागर ने 'मूकनिरीह माटी' के माध्यम से सारा जैन सिद्धान्त इस काव्य में उड़ेल दिया है। माटी मूक है, पद दलित है व कुम्भकार के माध्यम से सम्पूर्ण कंकर-पत्थरों को हटाकर वह अत्यन्त पवित्र, निर्मल, शुद्ध किस प्रकार बन सकती है, तत्पश्चात् महान् तप से तपकर श्रेष्ठता के उच्च शिखर पर किस प्रकार आसीन हो सकती है, इसका इसमें वर्णन है। ____वास्तव में आचार्यश्री का यह गद्यकाव्य महाकाव्य की परिभाषा में पूर्ण रूप से सही बैठता है। इसमें माटी को नायिका बना कर कुम्भकार को नायक का प्रतीक बनाया गया है। आचार्यश्री ने मूकमाटी का सहारा लेकर महिला शक्ति के प्रति महान् आदर व्यक्त किया है और उनकी संयत स्थिति और शालीनता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पहले खण्ड में आत्मा की प्राथमिक दशा के शोधन की प्रक्रिया, दूसरे खण्ड में 'शब्द, 'बोध' व 'शोध' का अन्तर, तीसरे खण्ड में पुण्योपार्जन तथा पाप के प्रक्षालन का सुन्दर काव्यमयी उदाहरण एवं चतुर्थ खण्ड में काव्यात्मक उदाहरण देते हुए माटी को कुम्हार द्वारा तपाकर उस शुद्ध-निर्मल कुम्भ का रूप दे दिया है। अन्त में स्पष्ट कर दिया कि गुरु तो प्रवचन ही दे सकते हैं, वचन नहीं। आत्मा का उद्धार बिना पुरुषार्थ के नहीं हो सकता । अविनाशी सुख वचनातीत है और वह तो साधना से ही प्राप्त आत्मोपलब्धि है। आत्मा की शुद्ध दशा को आत्मसात् करना हो तो साधना जरूरी है : "पर्वत की तलहटी से भी/हम देखते हैं कि/उत्तुंग शिखर का दर्शन होता है,/परन्तु/चरणों का प्रयोग किये बिना शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं है !" (पृ.१०) निरन्तर परिश्रम व संघर्ष से विजय प्राप्त होती है : "विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी/मगर मार्ग में नहीं, मंजिल पर।" (पृ. ४८८) आचार्यश्री ने जीवन के इस अभिनव एवं प्रशंसनीय महाकाव्य में लोक जीवन के मुहावरे, बीजाक्षरों, अंकों के चमत्कार, आयुर्वेद के प्रयोगों को भी पिरोया है। [सम्पादक- सन्मार्ग (हिन्दी दैनिक), कोलकाता-पश्चिम बंगाल, ९ नवम्बर, १९९१]
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy