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आचार्य श्री विद्यासागर और उनका महाकाव्य 'मूकमाटी'
डॉ. लक्ष्मी नारायण गुप्त जैन दर्शन के आचार्य और सन्त श्री विद्यासागरजी का अवदान, दार्शनिक उपलब्धियाँ केवल जैन धर्मावलम्बियों तक सीमित नहीं रह गई हैं, उनका प्रभाव सारे भारतीय समाज पर भी पड़ा है। इसका विशिष्ट कारण है उनका कवि हृदय । कवि द्रष्टा व स्रष्टा होता है । वह मनीषी और स्वयम्भू होता है, यह युग-युगान्तर की मान्यता है। ‘कवि-मनीषी परिभूः स्वयम्भूः' की उक्ति के साथ कवि को लोक जीवन में प्रतिष्ठित किया गया है। विद्यासागरजी विद्या और दर्शन के सागर हैं, तो उनका हृदय भी अवश्य रत्नाकर है । यदि साम्प्रदायिकतावाद से पृथक् वर्तमान युग के देशी-विदेशी परिवेश के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आचार्यजी सदाशयता और आत्मोत्कर्ष का मार्गदर्शन करने वाले ऐसे त्याग और तपस्या की साक्षात् विभूति हैं, जिनके उपदेशों के अनुकरण और आचरण से जीवन ही नहीं, मोक्ष भी सहज और सुलभ हो जाता है।
जैन दर्शन में आत्मोत्कर्ष की विशिष्ट प्रविधि और प्रक्रिया है । यहाँ जीव का स्वरूप निम्न रूप में व्यक्त किया गया है :
"जीवो उवओगमओ, अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्यो, सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥” ('द्रव्यसंग्रह'/२) अर्थात् जीव उपयोगमयी है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण वाला है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है तथा स्वाभाविक ऊर्ध्वगति वाला है। जीव को सिद्धावस्था/मुक्तावस्था तक पहुँचने के लिए अनेक संज्ञाओं/दशाओं को पार करना पड़ता है।
आचार्यश्री ने 'मूकमाटी' महाकाव्य की रचना में अनेक नवीन उद्भावनाओं और अर्थ निरूपण की कलात्मक अभिव्यक्तियों के साथ जीवन विकास के क्रम को सँजोया है । माटी जैसे निर्जीव पात्र को सांसारिकता में उपेक्षित नहीं बनाया जा सकता। शरीर भी तो अन्तत: माटी ही है। माटी का अस्तित्व तो होता ही है, किन्तु यदि वह किसी कलश, मूर्ति या अन्य पात्र के रूप में ढल जाए तो माटी सार्थक, जीवन्त और दूसरे को संजीवनी प्रदान करने की क्षमता प्राप्त कर सकती है । आचार्यश्री की मूकमाटी सरिता तट की है । वह अपनी माँ पृथ्वी से निवेदन करती है।
'सरिता तट की माटी अपना हृदय खोलती है माँ धरती के सम्मुख'-जीवन दर्शन का यहाँ से अथ / प्रारम्भ होता है और इति तक पहुँचने के बीच जाने कितने जैव-अजैव झंझावातों से उसे गुज़रना होता है । माटी अपने को पतिता मानती है । वह धरती माँ से कहती है :
"स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से,/.. अधम पापियों से पद-दलिता हूँ माँ !/सुख-मुक्ता हूँ,/दु:ख युक्ता हूँ
तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ !" (पृ. ४) वह आगे कहती जाती है :
"घुटन छुपाती-छुपाती/.."चूंट/पीती ही जा रही हूँ,
केवल कहने को/जीती ही आ रही हूँ।" (पृ. ५) मूकमाटी का यह जीवन तिरस्कृत, निर्जीव है । वह माँ से निवेदन करती है :