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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 471 प्रतिपादन में जैन दर्शन को बड़े सहज ढंग से आचार्यश्री ने उकेरा है । आज जीवन में घटित सामाजिक सन्दर्भो का समाधान दिया है आचार्यश्री ने समाज व्यवस्था को विश्लेषित करके । आचार्यश्री का सामाजिक दायित्व बोध दर्शनीय "...खेद है कि/लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।” (पृ. ३८६) ध्यान के सन्दर्भ में आचार्यश्री का आधुनिक चित्रण देखते ही बनता है। आचार्यश्री मानव के दो रूप बताते हैं : "इस युग के/दो मानव/अपने आप को/खोना चाहते हैंएक/भोग-राग को/मद्य-पान को/चुनता है; और एक/योग-त्याग को/आत्म-ध्यान को/धुनता है। कुछ ही क्षणों में/दोनों होते/विकल्पों से मुक्त । फिर क्या कहना!/एक शव के समान/निरा पड़ा है, और एक/शिव के समान/खरा उतरा है।" (पृ. २८६) 'मूकमाटी' वस्तुतः प्रबन्धकाव्य का एक अभिनव स्वरूप लिए 'अध्यात्म रस का शब्दशास्त्र' है । इसमें अलंकारों की चित्ताकर्षक छटा है तथा शब्द की अन्तरंग अर्थ भंगिमा की झाँकी है, जिससे काव्य की भाषा का अर्थ गौरव' बढ़ा है । लोकोक्तियों और मुहावरों के समावेश से भाषा का सौष्ठव दर्शनीय है । संवादों में नाटकीयता और सम्प्रेषणीयता से काव्य में रोचकता का संचार हुआ है। निश्चय ही आचार्यश्री का यह प्रबन्धकाव्य आधुनिक हिन्दी काव्य यात्रा की नूतन देन कही जाएगी। पृ.७. ऐतीशाश्वत होती है.... - ... वरळेपमें अवतार लेता है परीरसकी माता। Pi EO22 VPM
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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