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466 :: मूकमाटी-मीमांसा
माटी का छने, निर्मल जल के मिश्रण से लोंदा और कच्चे घट रूप होना 'संवर' है, जो माटी की निर्मल पर्याय का द्योतक है। फिर कच्चे घट का अवे में तपना, पकना, बीजाक्षरों से युक्त होना ही 'तप' है, जिससे पूर्वार्जित पापों का नाश होता है। कच्चे घट को तपा-पकाकर पक्के और मंगल घट का रूप प्राप्त होना, 'निर्जरा' है । शुद्ध जल युक्त मंगल घट से पूज्य गुरुदेव का पाद प्रक्षालन अर्थात् परम से चरम की ओर ऊर्जायुक्त होना ही 'मोक्ष' है। " नायकों के अनेक सोपानक्रम हैं। प्रारम्भ में नायक है कुम्भकार । कुम्भकार, घट को सेवक के माध्यम से नगर सेठ को अर्पित करता है, तब नायक का मुकुट नगर सेठ के शीश पर प्रतिष्ठित हो जाता है । नगर सेठ द्वारा आहार ग्रहण हेतु पधारे गुरुदेव के पाद प्रक्षालन में, जल पूर्ण घट का उपयोग होने से, नायक का पद गुरुदेव के चरणों में समर्पित हो गया है । गुरुदेव का जीवन अरिहन्त के प्रति समर्पित है, इस कारण अन्तिम और वास्तविक नायक वे ही सिद्ध होते हैं। महाकाव्य का आरम्भ ऊषाकाल के मनोरम एवं कल्याणकारी वातावरण में होता है :
"प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है/सर पर पल्ला नहीं है।
और/सिन्दूरी धूल उड़ती-सी/रंगीन-राग की आभा/भाई है, भाई..!" (पृ.१) काव्य, रसात्मक वाक्य अथवा शब्दार्थ की निषिता या रमणीय अर्थ की प्रतिपादकता है। इस महाकाव्य में अनायास ही ऐसे स्थल मिल जाते हैं, जिनके शब्द और अर्थ पाठक को रसविभोर करने को पर्याप्त हैं । संकेत रूप में एक उदाहरण प्रस्तुत है :
"जहाँ कहीं भी देखा/महि में महिमा हिम की महकी,/और आज ! घनी अलिगुण-हनी/शनि की खनी-सी/भय-मद-अघ की जनी
दुगुणी हो आई रात है।" (पृ. ९१) विवेचना की सीमा नहीं है और उदाहरण शताधिक हो सकते हैं, किन्तु संक्षिप्तता का आदर भी तो करना है। इसलिए एक अन्तिम आध्यात्मिक उदाहरण की प्रस्तुति के पश्चात् मन, वाणी और लेखनी को विराम देता हूँ :
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे/प्राप्त होने के बाद,
यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है/तुम ही बताओ !" (पृ. ४८६-४८७) .. अन्त में तपस्वी आचार्य सन्त कवि विद्यासागरजी और उनकी प्रज्ञा से उपजे कल्पवृक्ष 'मूकमाटी' महाकाव्य को शत-शत नमन।
लज्जाके यट में श्बती सी कुमुदिनीप्रभाकर के कर-खुवन से बचना चारती हैं वरः