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________________ 'मूकमाटी' : एक कमनीय कल्पना मगनलाल 'कमल' परम सन्त आचार्य श्री विद्यासागरजी द्वारा विरचित महाकाव्य 'मूकमाटी' को दूसरे शब्दों में सुगन्धित स्वर्ण के समान सहज, असुलभ वस्तु कहना सर्वथा समीचीन है । इस कृति में सरसता और अध्यात्म का मणि-कांचन संयोग इसे अन्य साहित्यिक रचनाओं से भिन्न कोटि में प्रतिष्ठित करता है। ___ आचार्यश्री के ज्ञान, वैराग्य, तप, साधना और प्रबुद्धता के दर्शन इस महाकाव्य के प्रत्येक पृष्ठ की प्रत्येक पंक्ति में किए जा सकते हैं। ___ महाकाव्य के प्राचीन लक्षणों के निकष पर इस सुगन्धित स्वर्ण की परीक्षा करना उचित नहीं है। काव्यशास्त्रीयों ने जिस समय महाकाव्य के लक्षणों की उद्भावना की थी, तब से अब तक समय-सरिता में न जाने कितना सलिल सरक चुका है ? आज कहाँ रह गई हैं प्राचीन मान्यताएँ और स्थापनाएँ ? प्रांजल भाषा में निबद्ध इस कमनीय कृति की सरसता, विशालता, सोद्देश्यता एवं वैचारिकता इसे महाकाव्य सिद्ध करने को पर्याप्त है। 'मूकमाटी' महाकाव्य इन चार खण्डों में विभाजित है -(१) संकर नहीं : वर्ण-लाभ', (२) शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, (३) 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' एवं (४) अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' । इस महाकाव्य की कथा संक्षिप्त होते हुए भी अपने में दार्शनिकता एवं वैचारिकता के अनेक आयाम समेटे हुए है । धरती की पुत्री माटी को अपने उद्धारक कुम्भकार की युग-युग से प्रतीक्षा थी कि वह उसे कंकर की संकरता से छुटकारा दिलाकर वर्णलाभ कराएगा । मूकमाटी की साध पूरी हुई। कुम्भकार कुदाली की सहायता से उसे खोदकर और अपने सहचर गधे पर लादकर उसे अपने उपाश्रम में ले गया। वहाँ माटी को कूटकर एवं छानकर वे कंकर अलग किए गए जो उसकी संकरता के कारण थे। कुएँ से बालटी में जल भर कर लाया गया जिसमें एक मछली भी अपनी मुक्ति कामना से जान-बूझकर आ गई थी। कुम्भकार ने एक सच्चे अहिंसक जैन श्रावक के समान पानी को छाना और मछली सहित सभी जीवों को छने हुए जल के साथ पुन: कुएँ में डाल दिया । पानी के मिश्रण के पश्चात् माटी को रौंद-रौंद कर लोंदा बना लिया गया। चाक पर चढ़कर लोद ने कुम्भकार के हाथों की कला के सहारे घट का आकार प्राप्त किया। कुछ सूखने पर कुम्भकार ने भीतर हाथ का सहारा दिया और बाहर से मोंगरी की चोटें मार-मार कर उसे निर्दोष, मनमोहक घट बना दिया। घट पर कुम्भकार ने अनेक प्रकार के अंक, बीजाक्षर एवं चित्र रचे । अग्नि में तपकर घड़ा अब मंगल मूर्ति - मंगल घट बना । मंगल घट श्रद्धा के आधार, भक्त, नगर सेठ के हाथों में पहुँचा और आहार-ग्रहण हेतु पधारे गुरु के पाद प्रक्षालन हेतु उस मंगल घट में भरे जल का सदुपयोग होने से, मूकमाटी के परिवर्तित रूप घट का जीवन सार्थक हो गया। इस सर्वथा नवीन महाकाव्य को प्राचीन उपनेत्र अर्थात् चश्मे के माध्यम से देखने वाले, इसमें नायक - नायिका की खोज करेंगे। इसमें नायिका है मूकमाटी, जो बाद में मंगल घट बन जाती है। जैन सिद्धान्त के अनुसार जीवात्मा स्त्री पर्याय से अपने पुण्य के आधार पर पुरुष पर्याय धारण करके ही मुक्ति लाभ करता है। माटी से मंगल घट बनकर सार्थक होने में यही संकेत है। माटी से लोंदा और लोद से घट रूप होना उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है, जो द्रव्य का लक्षण है। इसमें घट उत्पाद, लोंदा व्यय और माटी ध्रौव्य है । और माटी का कंकर की संकरता से छुटकारा प्राप्त कर वर्ण लाभ लेना यानी कर्मों के आसव' -आने के द्वार पर साँकल चढ़ जाना है।
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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